- महाशिवरात्रि हिंदू धर्म का एक महत्वपूर्ण त्योहार है। यह मानव जगत को ईश्वरीय शक्ति के महत्व का साक्षात्कार कराता है। भगवान शिव के द्वारा मानव जाति तथा सृष्टि के कल्याण के लिए विषपान जैसे महत्तम त्याग को दिखाता है। शिव की महाभक्ति हमें सिखाती है कि यदि हम अच्छे कर्म करेंगे और ईश्वर के प्रति श्रद्धा रखेंगे तो ईश्वर भी हमारी रक्षा अवश्य करेंगे।
- माना जाता है कि महाशिवरात्रि के दिन भगवान शिव हमारे काफी निकट होते हैं और इस दिन पूजा-अर्चना तथा रात्रि जागरण करने वालों को उनकी विशेष कृपा प्राप्त होती है। महाशिवरात्रि के दिन को उर्वरकता से भी जोड़ा जाता है। यह पर्व वसंत के मौसम में पड़ता है जब प्रकृति अपने सौंदर्य के चरम में होती है और ठंड के मौसम के बाद धरती सुसुप्तावस्था से जागकर एक बार फिर से उपजाऊ हो जाती है।
- पुराणों में दर्ज है महत्व महाशिवरात्रि मनाने का इतिहास बहुत प्राचीन है और पांचवीं सदी के भी पूर्व इसे मनाए जाने के साक्ष्य मिलते हैं। स्कंद पुराण, लिंग पुराण और पद्म पुराण जैसे कई मध्यकालीन पुराणों के अनुसार महाशिवरात्रि पर्व भगवान शिव को विशेष रुप से समर्पित है। यही कारण है कि शैव भक्तों के लिए यह त्योहार इतना महत्व रखता है।
- भगवान शिव का अग्नि स्तंभ महाशिवरात्रि से संबंधित कई पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं। ऐसी मान्यता है कि एक बार ब्रह्माजी व विष्णुजी में विवाद छिड़ गया कि दोनों में श्रेष्ठ कौन हैं। ब्रह्माजी सृष्टि के रचयिता होने के कारण स्वयं के श्रेष्ठ होने का दावा कर रहे थे तथा भगवान विष्णु पूरी सृष्टि के पालनकर्ता के रूप में स्वयं को श्रेष्ठ बतला रहे थे। तभी वहां एक अग्नि स्तंभ सदृश विराट लिंग प्रकट हुआ। दोनों देवताओं ने इस बात का निश्चय किया कि जो इस लिंग के छोर का पहले पता लगाएगा, उसे ही श्रेष्ठ माना जाएगा। अत: दोनों विपरीत दिशा में शिवलिंग की छोर ढूंढने निकले। छोर न मिलने पर विष्णुजी लौट आए।
- ब्रह्मा जी भी शिवलिंग के उद्गम के स्त्रोत का पता लगाने में सफल नहीं हुए, परंतु उन्होंने आकर विष्णुजी से कहा कि वे छोर तक पहुँच गए थे। जिसमें उन्होंने केतकी के फूल को इस बात का साक्षी भी बताया। ब्रह्मा जी के असत्य कहने पर स्वयं वहां शिव जी प्रकट हुए और क्रोधित होकर उन्होंने ब्रह्माजी का एक सिर काट दिया तथा केतकी के फूल को श्राप दिया कि उनके पूजा में कभी भी केतकी के फूलों का इस्तेमाल नहीं होगा और क्योंकि यह घटना फाल्गुन माह के 14वें दिन हुई थी और इसी दिन भगवान शिव ने खुदव् ाो शिवलिंग के रुप में प्रकट किया था इसलिए इस दिन को महाशिवरात्रि के रुप में मनाया जाता है।
- हलाहल विष की कथा इसी तरह एक दूसरी कथा भगवान शिव के विष पीने से है। जिसके अनुसार, जब अमृत प्राप्ति के लिए देवताओं और असुरों द्वारा मिलकर समुद्र मंथन किया जा रहा था, तब समुद्र से कई सारी चीजें प्रकट हुईं। उन्हीं में से एक था हलाहल विष, यह विष इतना तीव्र और घातक था कि सभी देवों और असुरों ने इस विष भरे घड़े को छूने से भी मना कर दिया। जब इस समस्या ने पूरे संसार में त्राहिमाम मचा दिया और विश्व के सभी जीव-जंतुओं पर संकट आ गया, तो सभी देव भगवान शिव की शरण में पहुंचे और हलाहल विष से पूरे विश्व के रक्षा की कामना की। तब भगवान शंकर ने इस भयंकर विष को पीकर अपने कंठ में धारण कर लिया। जिससे उनका गला नीला पड़ गया और वह नीलकंठ कहलाये। तब से उसी दिन को महाशिवरात्रि के पर्व के रुप में मनाया जाता है।
- शिव-पार्वती का गठबंधन महाशिवरात्रि को लेकर तीसरी जो सबसे प्रचलित कथा है उसके अनुसार, जब भगवान शिव की पिछली पत्नी सती की मृत्यु हो जाती है, तो भगवान शिव काफी दुखी हो जाते हैं। इसके बाद जब सती का माता पार्वती के रुप में पुर्नजन्म होता है तो भगवान शिव उनकी तरफ देखते तक नहीं हैं। माँ पार्वती उन्हें मनाने के लिए कामदेव की सहायता लेती हैं, ताकि भगवान शिव की तपस्या भंग हो सके और इस प्रयास में कामदेव की मृत्यु भी हो जाती है। समय बीतने के साथ ही भगवान शिव के Ëदय में माता पार्वती के लिए प्रेम उत्पन्न हो जाता है और वह उनसे विवाह करने का निर्णय ले लेते हैं। इस शादी के लिए फाल्गुन माह की अमावस्या का दिन तय किया गया। इसलिए इस दिन को महाशिवरात्रि पर्व के रूप में मनाया जाता है।