गणतंत्र दिवस पर विशेष


आलेख की शुरूआत अपनी ही एक छोटी-सी कविता से करना चाहूँगा। कविता है `दो सौ बहत्तर: इत्ता बड़ा देश/ इत्ती बड़ी आबादी / इत्ते सारे मसले/ इत्ते सारे पेंचोखम। मगर चाहिये फकत/ दो सौ बहत्तर जने। अब आप ही बताएं/ क्या है वृहत्तर/और कौन है महत्तर। देश, आबादी, मसले, पेंचोखम/ या दो सौ बहत्तर’ इस कविता में दिये प्रश्न का उत्तर सरल भी है और कठिन भी। अगर आप कहें कि दो सौ बहत्तर तो इस अंक देहरी को लांघने से सत्ता तो मिलती है, लेकिन बाकी वे चीजें पीछ छूट जाती हैं, जो इस महादेश की संरचना से जुड़ी हुई है। उन्हें ढंग से `एड्रेस’ न किये जाने का अर्थ होगा संरचना में दरारें और विकृतियाँ। गणतंत्र दिवस की पूर्व वेला की एक छोटी-सी खबर है। मुमकिन है कि बहुतों की नजर से न गुजरी हो या उन्होंने इस पर गौर नहीं किया हो। मगर इस छोटी खबर के निहितार्थ बड़े हैं। हम लोगों के बचपने और बाद के दिनों में गणतंत्र दिवस की परेड का बड़ा आकर्षण हुआ करता था। मुझे याद है कि सन् 70 के दशक के पूर्वार्द्ध में हम आठ-दस सहपाठियों की एक टोली आगरे से दिल्ली गयी थी और चिल्ला जाड़े की सर्द अलसायी भोर में बांस की सीढ़ियों पर सुभीते की जगह जाकर बैठ गयी थी। मार्च करते सैनिकों, करतबों और विभिन्न राज्यों की झांकियां देखना हम सबके लिए गर्व का विषय था। उसमें हमें अपने महान राष्ट्र की विविधता, सौन्दर्य और गरिमा के प्रत्यक्ष दर्शन हुये थे। खबर के मुताबिक यह परंपरा अब संकटापन्न है। संकटापन्न इस नाते कि इस दफा चार परंतों की झांकियां परेड में शिरकत नहीं करेंगी। ये चार राज्य हैं दिल्ली, पंजाब, पश्चिम बंगाल और कर्नाटक। दिल्ली इस महादेश की राजधानी है, जहां इस देश का दिल धड़कता है। पंजाब उत्तरी राज्य है। शौर्य, देशभत्ति और श्रम का धनी। कर्नाटक डेक्कन की संस्कृति और समृद्धि का गौरवशाली मरकज है। पश्चिम बंगाल का तो कहना ही क्या? कवींद्र रवीन्द्र, शरच्चंद्र, बंकिम और सुभाष बोस की बंगभूमि। भारत में रेनेसा की स्थली। इन चार राज्यों के बिना क्या गणतंत्र दिवस की झांकी मुकम्मल या पूरी हो सकेगी?
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बहरहाल उत्तर भारत और दक्षिण भारत की सोच में फासला बढ़ता जा रहा है। न्यूनता नैसार्गिक या परकृतिक प्रदत्त है तो बात समझ में आती है। वह चारित्रिक दोष है तो भी समझा जा सकता है, लेकिन अगर्चे वह हमारे आचरण से उपजती है, तो हमें उस पर गौर करना होगा। रीति और नीति में खोट और खामी से जो खालीपन या खुरंट उभरता है, उसे न जल्दी भरा जा सकता है और न ही जल्दी मेटा जा सकता है। हमारा संविधान हमारी नेमत है। वह हमें हमारे उन महान पुरखों का अमूल्य उपहार है, जिनके त्याग और तपस्या से हमने आजादी पाई थी और जो एकता और अखंडता की अर्थवत्ता और महत्ता को बखूबी बूझते थे। संविधान – निर्मात्री सभा में सारे भारत के लोग थे; हर जाति, धर्म, लिंग, संप्रदाय और भूभाग के लोग। लंबे अंतराल में गहन विमर्श और विचार मंथन से उपजा नवनीत है भारत का संविधान और इस महान संविधान का सार तत्व है न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व पर आधारित गणतांत्रिक स्वरूप।

संविधान कहता है: `वी द पीपुल…’ हम भारत के लोग। इस `हम’ में अनेक `मैं’ समाहित नहीं है, बल्कि उत्तर, पूर्व, पश्चिम, मध्य और दक्षिण के अनेकानेक `मैं’, परस्पर विलीन होकर वृहद `हम’ को रचते हैं। यही हम हमारा गणतंत्र है। कुछेक फूल नहीं, अपितु पूरा गुलदस्ता : रंगो – आब से भरा खुशबूतर गुलदस्ता। हमारा विधान जुमला नहीं है, बल्कि मुकम्मल गारंटी है। स्वतंत्रता की गारंटी। आवाजाही और बराबरी की गारंटी। उपासना – पद्धति की गारंटी। कोई ऊंच-नीच नहीं, कोई असमानता नहीं। भेदभाव नहीं। कोई श्रेष्ठ नहीं। कोई निकृष्ट नहीं। लिहाजा कोई दंभ नहीं। मूल्यों में आस्था, लेकिन कहीं कोई उन्माद नहीं, संविधान का अभीष्ट है रामराज्य। बापू का रामराज्य। ऐसा रामराज्य, जहाँ दैहिक, दैविक, भौतिक ताप नहीं व्यापते। हम गाते हैं: `जणगणमन अधिनायक जय हे भारत भाग्य विधाता।’ हमारा जनगण मन अधिनायक कौन है? कोई व्यत्ति नहीं, बल्कि जनगण। वहीं हमारा महानायक है। वही शत्तिशाली हो, समृद्ध हो, स्वस्थ हो। इसी में गणतंत्र की सफलता निहित है। यही लोकतंत्र की कसौटी है। संविधान की मंशा यही है।
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आज देश की दशा और दिशा क्या है? नोबुल से सम्मानित पोल कवियित्री शिंबोर्स्का कहती है: `हम राजनीतिक समय की संताने हैं।’ शिंबोर्स्का सही कहती हैं। आज राजनीति नियंता है। शुरुआती कविता जो प्रश्न खड़ा करती है, उसका उत्तर इन्हीं संदर्भ में निहित है। आज लोगों के जहनों में झांकिये। वहां डर है। गोसाई जी जब रामराज्य की बात करते हैं, तो कहते हैं : `सब नर करहिं परस्पर प्रीती। चलहि स्व धर्म निरत श्रुति नीती।’ निर्भय मन की बात विश्व कवि रवीन्द्रनाथ ठाकूर भी करते हैं। क्या हम अपने Ëदय पर हाथ रखकर कह सकते हैं कि हम शास्त्र-वार्णित रामराज्य की ओर अग्रसर है। क्या हमारे चित्त में आज आश्वस्ति के बजाय अनिश्चितता नहीं है? क्या आस्था का स्थान उन्माद ने नहीं ले लिया है? क्या सादगी को वैभव ने विस्थापित नहीं कर दिया है? क्या सांस्कतिक- परिदृश्य में आडंबर की केंद्रीय सत्ता नहीं है। मर्यादा पुरुषोत्तम राम की पूजा की दो पद्धतियां है : निर्गुण और सगुण। राम यदि बाल्मीकि के हैं तो भवभूति के भी है। वह कंबन के हैं, तो रहीम और जायासी के भी। अल्लामा इकबाल उन्हें `इमामे हिन्द’ कहते हैं। कबीर कहते हैं: कबीर कूता राम का, मुतिया मेरा नाम। वह फादर कामिल बुल्के के भी है। राम घट-घट में है। कण-कण में व्याप्त है। राम की विराटता व व्यापकता को मंदिर व विग्रह में समेट दिया गया है। सरयू तीरे अयोध्या में तपोभूमि सी शुचिर्मय अवधपुरी के बजाय अलकापुरी सी सुसज्ज नव्य अयोध्या उभर आई है। क्या हमारे देवालय और तीर्थ उपासना स्थल के बजाय पर्यटन और आमोद प्रमोद के लकदक केंद्र बन जायेंगे?
ये बाते इस नाते कि ये सहज जिज्ञासाएं हैं। ये इसलिये कि उदात्त – मानवीय परंपरा तिरोहित हो रही है और अतीत नये दमखम और संकल्पों के साथ लौट रहा है। यह पुनरुत्थान का दौर है। तात्विक बात करें तो धर्ममंदिरों से और राजनीति संसद से विस्थापित हो रही है। डॉ. लोहिया कहते थे कि धर्म दीर्घकालिक राजनीति और राजनीति अल्पकालिक धर्म है। आज हम किस अतीत को दफन कर किसे पुनरुज्जीवित कर रहे हैं? क्या डा. लोहिया आज अपने पहले के रामायण मेले की कल्पना कर सकते हैं? जिसमें एम.एफ. हुसैन की भी भूमिका थी। आज कलाकारों के लिए मंचन, फिल्मांकन और प्रदर्शन मुश्किल हुआ जाता है। वर्णक्रम में एक रंग शेष रंगों पर भारी है। आज कर्मकाण्ड प्रमुख है, मूल्यों में निष्ठा द्वैतीयक। यह क्रूर और हिंस्त्र समय है। कोलाहल भय उपजाता है। नारे उमंग नहीं, भय सिरजते हैं। चंडीदास का `साबार ऊपरे मानुषेर सत्य’ तिरोहित हो चला है। यह वह गणतंत्र है, जहाँ आधी दुनिया का सम्मान दूर की कौड़ी है और बहुतेरी गरहय और वरेण्य चीजे हाशिये में सरक रही हैं। यह आत्मा को भकझोरने का दुष्कर समय है, जब गणतंत्र में गण गौण हुआ जाता है। दूसरे इसे खानों में बांटने का कार्थित गर्वीला और सुनियोजित दौर जारी है। समापन भी एक कविता से करना चाहूंगा : `कोई भी संप्रभु शासक नहीं है धरती का/ बंटी है धरती सीमाओं में/ सिर्फ प्रेम संप्रभु शासक है/ सीमातीत है उसका सामरज्य / कालातीत है उसकी सत्ता।
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