
अपने यहां आप सभी पूर्णिमाओं में से एक पूर्णिमा को गुरु को क्यों समर्पित किया गया है? बुनियादी रूप से ग्रहणशीलता के लिहाज से सूर्य की परिक्रमा में घूमती धरती के पथ के अलग-अलग बिंदुओं की अपनी कुछ खास विशिष्टताएं हैं। साल में कुछ ऐसे खास दिन हैं, जब संतों, व ऋषियों को ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। हालांकि उन्हें ज्ञान की प्राप्ति किन्हीं खास दिनों की वजह से नहीं हुई, वे लोग पहले से साधना और तपस्या प्रक्रिया में थे, वे ज्ञानोदय के करीब थे, बस हुआ इतना कि उस खास दिन उनकी साधना इसलिए फलित हो गई, क्योंकि उन्हें प्रकृति की तरफ से काफी सहयोग मिला।
गुरु पूर्णिमा के दिन चंद्रमा व अन्य ग्रह एक खास तरह से सीध में आ जाते हैं, जिससे लोग उस आयाम के प्रति ग्रहणशील बनते हैं, जिसे हम गुरु के नाम से जानते हैं।
पारंपरिक तौर पर अपने यहां लोगों ने ग्रहणशीलता के इस समय का जितना सर्वश्रेष्ठ सदुपयोग हो सकता था, उतना लाभ लेने की कोशिश की। आमतौर पर भारत में इस दिन लोग चांदनी रात में घर से बाहर रहते थे और अगर संभव हुआ तो अपने गुरु के साथ समय बिताते थे। लोग पूरी रात या तो ध्यान में बिताते थे या फिर नाचते-गाते व पूरी जोश में भजन कीर्त
गुरु पूर्णिमा : कृपा का एक महत्वपूर्ण समय
इन्हीं दिनों आदियोगी की नजर अपने पहले सात शिष्यों पर पड़ी, जिन्हें हम आज सप्तर्षि के नाम से जानते हैं। यौगिक संस्कृति में शिव को ईश्वर की तरह नहीं पूजा जाता, बल्कि उन्हें आदियोगी यानी पहला योगी माना जाता है और उन्हें आदि गुरु भी कहा गया है, वह पहले गुरु थे, जिनसे यौगिक विज्ञान की शुरुआत हुई।
तो हम लोग ऐसे महीने में है, जहां अपने आसपास के परिवेश(वातावरण) के प्रति पूरी तरह से तटस्थ हुए योगी और तपस्वी ने भी इन चीजों से जुड़ना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे अपने अनुभवों को साझा करने की इच्छा इस महीने में पैदा होने लगी थी।
उन सप्तर्षियों ने पूरे 84 साल तक आदियोगी का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किए बिना लगातार कुछ साधारण तैयारी से जुड़े अभ्यास किए थे। उसके बाद सूर्य की एक संक्रांति के दौरान, जब सूर्य उत्तर से दक्षिण की ओर जाता है – जिसे भारतीय संस्कृति में दक्षिणायन के नाम से जाना जाता है – आदियोगी ने गौर किया कि ये सातों ऋषि अपने आप में एक चमकते हुए प्राणी बन चुके हैं। उसके बाद 28 दिनों तक आदियोगी उन सप्तर्षियों पर से अपना ध्यान नहीं हटा पाए। ऋषियों पर आदियोगी का ध्यान एकटक लगा था।
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फिर सूर्य की ग्रीष्मकालीन संक्रांति(21 जून) के बाद पहली पूर्णिमा आने पर आदियोगी ने उन्हें दीक्षित करने का निर्णय लिया। उन्होंने फैसला किया कि वे उनके गुरु बनेंगे। इसलिए इस पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा के नाम से जाना जाता है। इस महीने को ऐसे महीने के रूप में देखा जाता है, जहां एक पूरी तरह से कठोर दिल तपस्वी भी अपने आसपास को अनदेखा नहीं कर सका और उसका दिल उन सात लोगों के प्रति करुणा से भर उठा। ऐसे कोई योगी जिन्होंने अपने आपको इतना कठोर बना लिया हो कि दुनिया उनको छू भी न सके, वे भी इस मौके पर आकर पिघल उठे और करुणा से भर कर गुरु बनने के लिए बाध्य हो गए, जिसके बारे में उनका कोई दूर-दूर तक इरादा नहीं था।
इसलिए इस महीने को गुरु की कृपा और आशीर्वाद पाने का सर्वश्रेष्ठ समय माना जाता है, ताकि आप आध्यात्मिक प्रक्रिया के प्रति पूरी तरह से ग्रहणशील बन सकें। यह उस कृपा का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने का सबसे अच्छा समय है।
गुरु पूर्णिमा : ग्रहणशीलता को बढ़ाना
शिव पुराण में बताया गया है कि आषाढ़ मास की पूर्णिमा तिथि को भगवान विष्णु के अंशावतार वेदव्यास जी का जन्म हुआ है। इसलिए जगद्गुरु की उपाधि से सुशोभित वेदव्यास सहित अन्य गुरुओं की पूजा के महापर्व के रूप में आषाढ़ पूर्णिमा को गुरुपूर्णिमा के रूप में मनाया जाता है। मानवता को अज्ञानता से मुक्त कराने के लिए परमेश्वर ने गुरु रूप में अपने हृदय से ज्ञान का अंश निकाला जिसके ज्ञान से शिष्य में अज्ञान रूपी अन्धकार दूर होता है और वह तमसो मा ज्योतिर्गमय की ओर अग्रसर होता है।
वास्तव में गुरु कृपा के बिना सच्चा ज्ञान प्राप्त नहीं होता। जीवन रहस्यों का उद्घाटन केवल गुरु ही करने में सक्षम होते हैं। जिस प्रकार नेत्रहीन व्यक्ति को संसार का अनुपम सौन्दर्य दिखाई नहीं दे सकता, उसी प्रकार जब तक गुरु हमें प्रकाश नहीं देगा, उनका मार्गदर्शन हमें नहीं मिलेगा, तब तक आँखें रहते हुए भी हमें चारों ओर अंधकार ही अंधकार नजर आएगा। हम सही रास्ते पर नहीं चल सकेंगे। सद्गुरु के बिना अच्छे कार्य सफल नहीं हो सकते।
बच्चा जन्म लेने के पश्चात् सर्वप्रथम माता के संपर्क में आता है। उसके बाद बालक धीरे-धीरे बड़ा होकर स्कूल जाने लगता है। विद्या प्राप्ति के लिए उसे गुरु के पास भेजा जाता है। गुरु को माता-पिता तथा ईश्वर से भी बढ़कर बताया गया है। माता-पिता तो बच्चे को जन्म देकर उसका पालन-पोषण ही करते हैं, जबकि उसके विकास में सहायता करने वाला, उसे सन्मार्ग पर चलाने वाला गुरु ही होता है। वही मनुष्य का कल्याण कर उसके लिए मुक्ति का द्वार खोलता है। भगवान् मनु ने तो विद्या को माता तथा गुरु को पिता बताया है।
हमारे देश के तत्त्वदर्शी ऋषियों ने अपने अनुभवों तथा खोजबीन के आधार पर यही निष्कर्ष निकाला है कि व्यक्ति केवल आर्थिक रूप से सुखी नहीं रह सकता। उसके जीवन में श्रेष्ठ गुणों का समावेश होना आवश्यक है। उसे इतना ज्ञान तो होना ही चाहिए, जिससे वह इस बात को भलीभाँति जान सके कि उसका इस धरती पर अवतरित होने का उद्देश्य क्या है? उसे क्या करना है? जिस प्रकार दीपक स्वयं जलकर दूसरों को प्रकाश देता है, उसी प्रकार दूसरों के अन्दर के अज्ञान को दूर कर उसे ज्ञान का प्रकाश देना, उसके सुख-दुख में भागीदारी, ‘जियो तथा जीने दो’की भावना मनुष्य के अंदर होनी चाहिए।
गुरु अज्ञान रूपी अन्धकार से ज्ञान रूपी प्रकाश की ओर ले जाता है। वह सोये हुए को जगाता है, भटके हुए को राह दिखाता है। स्वार्थ में लगे हुए को परमार्थ के लिए प्रेरित करता है, विपत्ति में फँसे हुए का उद्धार करता है। निराशा के अंधकार में आशा की ज्योति जगाते हैं। इसलिए कहा गया है।
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुरेव महेश्वरः। गुरुरेव परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः॥
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