मानवता के महान आदर्श श्री राम
भगवान राम ऐसे महामानव थे जिन्होंने चराचर जगत की रक्षा के तत्पर थे। उनका अवतरण मानव मात्र के कल्याण के लिए हुआ था। सभी वर्गऔर सभी जातियों के वे परमेश्वर थे। रामनवमी का दिन इस महान आत्मा के अवतरण का दिवस होता है।
शास्त्रों में लिखा है
गौ द्विज धेनु देव हितकारी, कृपसिंधु मानस तनु धारी।।
जिसका अर्थ है कि भगवान राम ने गौवंश, ब्रह्मण, सन्त, सज्जन की रक्षा के लिए मानव शरीर धारण किया था। उस युग में जब पाप और अधर्म बढ़ने लगा था, राक्षसों के अत्याचार ऋषि-मुनि व अन्य मानवीय आतंकित होने लगे थे, तब उन्होंने भगवान से कष्टों को दूर करने आह्वान किया।
पीड़ित मानवता का आर्तनाद सुन धर्म की रक्षा व अधर्म के नाश के लिए श्री विष्णु अवतरित हुए। भगवान श्री राम मर्यादा पुरुषोत्तम, पतितों का उद्धार करने वाले ऐसे ही नहीं हुए। उन्हें चक्रवर्ती राजकुमार राम से मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम बनने में बहुत संघर्षों से गुजरना पड़ा।
संस्कार
गुरुगृह गये पढ़न रघुराई, अल्पकाल विद्या सब आई।
गुरु वशिष्ठ ने गुरुकुल में ही सभी राजकुमारों को संस्कारवान, अस्त्र- शस्त्र-शत्ति सम्पन्न, हर परिस्थिति में डटे रहने वाले पाषाण सम संकल्प वाले युवकों में पहले ही ढाल दिया था।
गुरुकुल से ही राम को नेतृत्व, स्नेह, वीरता, पराक्रम, धैर्य, आज्ञाकारी होने के सग्दुण मिले। वनवास की संपूर्ण शिक्षा राम जी को गुरुकुल काल में मिल चुकी थी, जिससे उन्होंने वन के दुर्गम पथ, कंटक, पगडंडिया, नदी, पहाड़ आदि में भी राजपाट का सुख अनुभव किया।
आज्ञा-पालन
अनुज समेत देहु रघुनाथा, निशिचर बध मैं होब सनाथा।
परम ऋषि विश्वामित्र ने राजा दशरथ से यज्ञ-हवन आदि की रक्षा के लिए प्रभु श्री राम को इसी हेतु से मांगा कि आने वाले विकट समय के लिए उन्हें तैयार किया जा सके। राजा दशरथ ने यज्ञ व साधुओं की रक्षा के लिए अपनी समस्त सेना भेजने का आग्रह किया था, किंतु विश्वामित्र राम को ही साथ ले जाने के लिए डटे रहे।
इसके पीछे उनका मंतव्य राम को आने वाले युद्ध के लिए कई गुणों से संपन्न करना था। आगे सीताहरण, हनुमान का मिलना, सुग्रीव से मित्रता, लंका-दहन, रामसेतु निर्माण, रावण वध आदि सर्वविदित है।
वचनपूर्ति
सुनु जननी सोई सूत बड़भागी, जो पितु मातु वचन अनुरागी
एक वैभवशाली सुसम्पन्न राज्य के राजकुमार को पिता के वचन पर जब राज्य का परित्याग कर वन में जाना पड़ता है, तो वे सहर्ष तैयार होकर पिता व माता का आशीर्वाद लेकर वन को चले जाते हैं। अपने पीछे मन में कोई घृणा नहीं, कोई नकारात्मक विचार नहीं। इस कलियुग के लिए यह एक बहुत बड़ी सीख है।
घर का बड़ा सदस्य या परिवार का नेतृत्वकर्ता परिवार पर आए संकट को अपने ऊपर ले लेता है और न तो क्रोधवश कोई प्रतिक्रिया करता है, न ही परिजनों को कोई संज्ञा ही देता है, ऐसा मर्यादा व संस्कारी व्यक्तित्व श्री राम के अतिरिक्त अन्य नहीं मिल सकता।
समरसता
सहज सनेह विवश रघुराई, पूछी कुशल निकट बैठाई।
कंद मूल फल सुरस अति, दिए रामकहं आनि।
गुरुकुल के मित्र निषादराज से जब पुनः वन में राम की भेंट होती है, वे उन्हें अपने साथ बैठाकर सम्मान देते हैं। अनुग्रह आग्रह पर भी उनकी कोई सहायता नहीं लेते, न ही उनके राज्य में अधिक समय रुकते हैं। प्रेम का उत्तर हम प्रेम से ही दे सकते हैं, यह सीख हमें राम के चरित्र से मिलती है।
आगे जाकर जब राम साध्वी भीलनी शबरी की कुटिया में आते हैं, तब सारे बंधन त्याग कर प्रभु शबरी के जूठे बेर खाते हैं। यह प्रेम व अनुराग राजमहलों में नहीं मिल सकता, जो सहज प्रेम शबरी के जूठे बेर में राम जी को प्राप्त हुआ। यह ऐसी कीर्ति बनी जो समाज के बंधनों को तोड़ने के लिए युगों-युगों तक एक प्रेरणा बन गई।
मैत्री भाव
तेहसिन नाथ मयत्री कीजै, दिन जानि तेहि अभय करीजै।
वन में जाकर शक्तिशाली बाहुबली बाली को अपना मित्र नहीं बनाया, सुग्रीव जैसे सहज व्यत्ति से मित्रता की तथापि वह अपने राज्य से भगाया हुआ राजा था, फिर भी मित्रता सज्जन पुरुष से ही होनी चाहिए, फिर वह कितना ही निर्बल या निर्धन क्यों न हो।
उसकी सज्जनता ही उसका अमूल्य धन है। इसके बाद वन में रहने वाले वनवासी वानरों का सीता माता को ढूंढना, हनुमान का लंका दहन, मेघनाद, कुंभकर्ण समेत रावण का अंत यह सभी को विदित है।