Saturday, December 6, 2025
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गीता का कर्मयोग/ Karmayoga of Geeta

कर्म करें, फल की इच्छा ना करें

प्रत्येक व्यक्ति संसार में किसी किसी विशेष उद्देश्य से आता है और उसका यह एक जन्मजात स्वभाव भी होता है। वह उस विशेष उद्देश्य को पूरा करते हुए स्वभाव के अनुसार कर्म करने में समर्थ होता है।

  • प्रत्येक व्यक्ति संसार में किसी न किसी विशेष उद्देश्य से आता है और उसका यह एक जन्मजात स्वभाव भी होता है।
  • वह उस विशेष उद्देश्य को पूरा करते हुए स्वभाव के अनुसार कर्म करने में समर्थ होता है।
  • इसके विपरीत जाने के लिए वह स्वतंत्र नहीं।

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 अर्जुन का उदाहरण

  • उदाहरण के रूप में अर्जुन को लीजिए, पृथ्वी के भार को दूर करने के विशेष उद्देश्य से उसका जन्म हुआ था।
  • अतएव इस कार्य में वह परतंत्र हुआ। उसे यह कार्य करना ही था।

रक्त कणों का उदाहरण

  • हमारे शरीर के भीतर जितने रक्त के कण हैं, वे जिस स्थान पर हैं, वहीं रहने के लिए विवश हैं।
  •  कहा जा सकता है कि हमारी शक्ति उनके भीतर है और हम उनको संचालित करते हैं।
  •  परंतु वे अपने स्थान पर रहते हुए अपनी चेष्टाओं में स्वतंत्र हैं।

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मनुष्य का कर्म स्वातंत्र्य

  • ऐसे ही ईश्वर द्वारा नियुक्त स्थान पर रहते हुए, संसार में अपने आने के विशेष उद्देश्य को पूर्ण करते हुए मनुष्य अपनी दूसरी चेष्टाओं में स्वतंत्र है।
  •  यही है मनुष्य का कर्म-स्वातंत्र्य।

भगवान ने कहा

  • इसीलिए भगवान् ने कर्मण्येवाधिकारस्ते’ कहा है, केवल कर्म में अधिकार है।
  • स्वभाव परिवर्तन या ईश्वर के दिए स्थान परिवर्तन में कोई अधिकार नहीं है।
  • मा फलेषु कदाचन् फल में तेरा अधिकार कभी नहीं है।
  • अत:  कर्म का यह फल होगा ही या यह फल होना चाहिए, ऐसा सोचकर कर्म करने वाले सर्वदा दुःख पाते हैं।

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