अपनी लीक सदैव स्वयं निर्मित करने वाले कवि डॉ. सुधीर सक्सेना
कवि सुधीर सक्सेना की कविताएं किसी परंपरागत लीक पर चलने वाली सहज, सामान्य अथवा साधारण कविताएं नहीं हैं। वे असहजता को सहजता से स्वीकार करते हुए अपने विशिष्ट विन्यास में सामान्य से अलग प्रतीत होती हैं। उनके यहां असाधारण चीजों को साधारण बनाने का सतत उपक्रम कविता में होता रहा है। सुधीर सक्सेना अपनी लीक सदैव स्वयं निर्मित करते रहे हैं।
आधुनिक हिंदी कविता के परिदृश्य में वरिष्ठ कवि सुधीर सक्सेना की कविता-यात्रा पर विचार करते हुए
मैं सर्वप्रथम कवि सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की पंक्तियों का स्मरण करना चाहूंगा-
लीक पर वे चलें जिनके चरण दुर्बल और हारे हैं
हमें तो हमारी यात्रा से बने ऐसे अनिर्मित पंथ प्यारे हैं।
असहजता को सहजता से स्वीकारने वाले कवि
- कवि सुधीर सक्सेना की कविताएं परंपरागत लीक पर चलने वाली सहज, सामान्य अथवा साधारण कविताएं नहीं हैं।
- वे असहजता को सहजता से स्वीकार करते हुए अपने विशिष्ट विन्यास में सामान्य से अलग प्रतीत होती हैं।
- उनके यहां असाधारण चीजों को साधारण बनाने का सतत उपक्रम कविता में होता रहा है।
- सुधीर सक्सेना अपनी लीक सदैव स्वयं निर्मित करते रहे हैं।
- अपने प्रत्येक कविता संग्रह में उन्होंने निरंतर स्वयं को जटिलताओं अथवा कहें अतिसंवेदनशीलताओं में गाहे-बगाहे डाला है।
- और हर बार मजूबत दृढ़ कदमों के साथ आगे बढ़ते हुए मनुष्यता की जीत का अहसास कराया है।
अलबेले पंछी
- आपको किसी धारा या वाद में आबद्ध नहीं किया जा सकता है।
- उन्होंने अपनी कविता यात्रा द्वारा हिंदी कविता के प्रांगण में अनेक अनिर्मित पंथ सृजित करते हुए अपने एक अलबेले पंछी होने का साक्ष्य छोड़ा है।
- आज आवश्यकता यह है कि हम इन साक्ष्यों के आलोक में अनिर्मित पंथ के पंथी का परिचय जानें।
- मुक्त और स्वच्छंद विचरने वाले सुधीर सक्सेना की कविता यात्रा को देख-परखकर उनका उचित स्थान निर्धारित करें।
परिचय
- सुधीर सक्सेना का जन्म 30 सितंबर, 1955 को लखनऊ में हुआ।
- आपने विज्ञान, लोकप्रशासन, हिंदी साहित्य और पत्रकारिता में डिग्रियां हासिल कीं।
- रूसी भाषा व आदिवासी भाषा और संस्कृति में डिप्लोमा प्राप्त किया।
- वर्ष 1975 से कविता के मार्ग पर ऐसे बढ़े कि आज तक बढ़ते चले जा रहे हैं।
- इस मार्ग में अनेक धाराएं और कुछ विराम भी रहे हैं,
- किंतु उनकी विविध रचनात्मकता में उनके कवि ने उनका साथ नहीं छोड़ा या कहें कि वे पत्रकार-संपादक बने तो भी उन्होंने अपने कवि को बचाए रखा।
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साहित्य यात्रा
- परिमल प्रकाशन से बहुत दिनों के बाद (1990) आपका पहला कविता संग्रह आया
- जिसे मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन द्वारा वागीश्वरी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
- यहां यह भी उल्लेखनीय है कि कवि सुधीर सक्सेना ने देश-विदेश अनेक यात्राएं कीं
- और अपने अध्ययन- चिंतन-मनन का दायरा व्यापक करते हुए अनुवाद की दिशा में भी महत्त्वपूर्ण कार्य किए।
- उनके अध्ययन का सिलसिला विद्यार्थीकाल से ही उल्लेखनीय रहा है।
- जिसका अनुमान हम आपके सद्य प्रकाशित कविता संग्रह `सलाम लुई पाश्चर’ (2022) कविता संग्रह की लंबी भूमिका से हो सकता है।
- इसमें कवि ने जहां वर्ष 1970 से अपनी स्मृतियों का गुल्लक खोला है
- वहीं आश्चर्यचकित और हैरतअंगेज तथ्यों से हमारा साक्षात्कार कराया है।
- विज्ञान विषयक कविताएं हिंदी में ही नहीं भारतीय भाषाओं में और अन्यत्र भी इतनी देखने को नहीं मिलती
- जितनी सुधीर सक्सेना के यहां है। जैसे वे इस धारा का सूत्रपात कर रहे हैं।
- ऐसा नहीं है कि यह संग्रह अचानक और एकाएक प्रकट हो गया है।
- इस संग्रह में संकलित कुछ कविताएं उनके पूर्ववर्ती संग्रह में देखी जा सकती हैं।
- अपने समय के साथ और परंपरा को खंगालते हुए कवि ने अपनी कविता यात्रा में अनेक ऐसे स्थल निर्मित किए हैं
- जिनके उल्लेख के बिना आधुनिक हिंदी कविता का इतिहास पूरा नहीं हो सकेगा।
कविता यात्रा का उद्गम
- सुधीर सक्सेना की कविता यात्रा के उद्गम से आरंभ करें तो,
- आपके पहले कविता संग्रह `बहुत दिनों के बाद’ की एक कविता `शर्त’ का यहां उल्लेख जरूरी लगता है-
मधुमख्खियों के घरोंदे में हाथ डाल
और जान जोखिम में
लाया हूँ। ढेर सारा शहद
पर एक शर्त है।
शहद के बदले में तुम्हें देना होगा
अपना सारा नमक।
- अपने पहले ही संग्रह से कवि सुधीर सक्सेना ने एक व्यवस्थित कवि होने का अहसास कराते हुए अनेक उल्लेखनीय कविताएं दी हैं।
- इन कविताओं में उनका अपना समय-समाज और इतिहास-बोध अपने गहरे रंगों में अंकित हुआ है।
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`समरकंद में बाबर’
- अगले संग्रह `समरकंद में बाबर’ (1997) पर आपको रूस के प्रतिष्ठित `पुश्किन पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया।
- यह संग्रह अपनी सहजता, संप्रेषणीयता, सृजनात्मकता और विषयगत विविधता के कारण संग्रहणीय है।
- अपने समय की अनिश्चिता को कवि ने इन शब्दों द्वारा जैसे परिभाषित किया
कुछ भी ऐतबार के काबिल नहीं रहा
न कहा गया
न सुना गया
और न लिखा गया
कुछ भी नहीं।
जहां भरोसा कोहनी टिका सके
कोई कोना नहीं.
जहां यकीन बैठ सके
आलथी-पालथी मारकर
(`समरकंद में बाबर’ की पहली कविता में)
`काल को भी नहीं पता’
- सुधीर सक्सेना के `समरकंद में बाबर’ संग्रह के साथ ही एक अन्य संग्रह `काल को भी नहीं पता’ (1997) प्रकाशित हुआ था।
- जिसने हिंदी आलोचना का ध्यानाकर्षित किया।
- यह संग्रह सुधीर सक्सेना के कवि की कीर्ति की अभिवृद्धि करते हुए उनका एक अगला पड़ाव है।
- कवि यहाँ अपनी चिरपरिचित भाषा और कहन को स्थापित करते हुए पहचान बना चुका है।
- संग्रह पुख्ता अहसास करता है कि यह कवि सामान्य नहीं वरन विशेष है।
- जो हिंदी कविता में प्रयोग और अपने अद्वितीय विचार बल पर कविता की ऊंचाई पर ले जाने वाला कहा जाएगा।
- कवि की सहजता में भीतर की असहजता को हम सहज ही देख-परख सकते हैं।
- शहर, घटनाओं और व्यक्तिपरक कविताओं के अनेक रूप यहां हमें मिलते हैं।
- संग्रह `काल को भी नहीं पता’ में श्रृंखला में रचित तीस कविताएं `तूतनखामेन के लिए’ जैसे हिंदी कविता में एक नया अध्याय है।
- जिसमें इतिहास जैसे निरस विषय को सरस बनाते हुए कविता के प्रांगण में कवि ने प्रस्तुत किया है।
- यह कवि का स्वयं को एक समय से दूसरे समय में ले जाकर, वहीं लंबे समय तक ठहर जाना है।
- बिना ठहराव के यहां जो अनुभूतियां शब्दों के रूपांतरित होकर हमारे सामने है, कदापि संभव नहीं थी।
- इन कविताओं में कोरा ऐतिहासिक ज्ञान अथवा विमर्श नहीं,
- वरन कवि के वर्तमान से अतीत को छूने की चाह में उस बिंदु तक पहुंच जाना अर्थात कवि का काल को विजित करना है।
- `काल को भी नहीं पता’ संग्रह के अंत में `बीसवीं सदी, इक्कीसवी सदी’ एक लंबी कविता है
- जो बाद में स्वतंत्र पुस्तिका के रूप में भी प्रकाशित हुई है।
- इस कविता में बेहद उत्सुकता के साथ समय में झांकने का रचनात्मक उपक्रम हुआ है।
- यहां समय के बदलाव को देखने-समझने का विन्रम प्रयास निसंदेह रेखांकित किए जाने योग्य है।
- कवि का मानना है कि समय तो एक समय के बाद अपनी सीमा रेखा को लांध कर अंकों के बदलाव के साथ दूसरे में रूपांतरित हो जाता है
- किंतु उस बदलाव के साथ बदलने वाले सभी घटकों का बदलाव क्या सच में होता है?
- या यह एक कृत्रिम और आभाषित स्थिति है? इस भ्रम में खोये हुए हैं हम
- और कविता के अंत तक पहुंचते-पहुंचते स्वयं प्रश्न-मुद्रा में समय के बदलाव को नियति की विडंबना मान कर
- चुप रहने की त्रासदी झेलने की विवशता को रेखांकित किया है। सुधीर सक्सेना की काव्य यात्रा में अनेक लंबी कविताएं हैं।
- `अर्द्धरात्रि है यह…’ (2017) और `धूसर में बिलासपुर’ (2015) आदि लघु पुस्तिकाओं के रूप में प्रकाशित हैं।
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`धूसर में बिलासपुर’
- संभवतः किसी शहर पर अपने ढंग की अद्भुत विराट कविता संग्रह है `धूसर में बिलासपुर’।
- यहां एक ऐसा बिलासपुर है जिस की छाया में हमें अपना-अपना बिलासपुर दिखता है।
- बदलाव की आंधी में आधुनिक समय के साथ बदलते इतिहास और एक शहर का यह दस्तावेज एक आईना है।
- किसी शहर को उसके ऐतिहासिक सत्यों और अपनी अनुभूतियों के द्वारा सजीव करना सुधीर सक्सेना के कवि का अतिरिक्त काव्य-कौशल है।
कविता की अंतिम पंक्तियां हैं-
`किसे पता था कि ऐसा भी वक्त आयेगा
बिलासपुर के भाग्य में
कि सब कुछ धूसर हो जायेगा और इसी में तलाशेगा
श्वेत-श्याम गोलार्धों से गुजरता बिलासपुर
अपनी नयी पहचान।’
- अस्तु कहा जा सकता है कि जिस नई पहचान को संकेतित यह कविता है
- वैसी ही हिंदी कविता यात्रा की नई पहचान के एक मुकम्मल कवि के रूप में सुधीर सक्सेना को पहचाना जा सकता है।
- बिलासपुर के साथ ही अन्य कविताओं में बांदा, बस्तर, रायबरेली, अयोध्या के संदर्भों में गुंथी
- उनकी लंबी कविताओं को `सुधीर सक्सेना की लंबी कविताएं’ (2019) संपादक- उमाशंकर परमार में देखा जा सकता है।
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`सुधीर सक्सेना की लंबी कविताएं’
जाहिर है इस संकलन में संपादक की लंबी भूमिका `सामूहिक संवेगों की अंतर्कथा’ में इन कविताओं पर विवेचन किया गया है।
जिस पर वरिष्ठ आलोचक धनंजय वर्मा की यह टिप्पणी सटीक लगती है-
मैं मुतमईन हूं कि सुधीर सक्सेना की वे लंबी कविताएं और उनके मर्म को उद्घाटित करता उमाशंकर जी का आलेख, आप अनुभव करेंगे,
हमारी भावना और अनुभूति के साथ हमारी दृष्टि के कोण और दिशा को भी इस तरह बदलता है
कि हम अपने समकालीन माहौल को नए संदर्भ और आयाम में देखने लगते हैं।‘ (पृष्ठ–14)
कहना होगा कि सुधीर सक्सेना हिंदी के विशिष्ट और प्रयोगधर्मी कवि रहे हैं
और उन्होंने लंबी कविता के क्षेत्र में अद्वितीय योगदान दिया है।
`अजेस ई रातो है अगूण’
- यहां यह भी स्पष्ट करना आवश्यक है कि मैं कवि सुधीर सक्सेना की कविता यात्रा से इतना प्रभावित रहा हूं कि
- उनके दस संग्रहों से चयनित कविताओं का राजस्थानी अनुवाद `अजेस ई रातो है अगूण’ शीर्षक से राजस्थानी भाषा में किया है, वहीं उनके संग्रह `ईश्वर हां, नहीं… तो’ (2014) का भी अनुवाद किया है।
`लव इन कारंटाइन’
कोरोना काल की 21 कविताएं अंग्रेजी अनुवाद के साथ पुस्तकाकार `लव इन कारंटाइन’ नामक संग्रह में देखी जा सकती है।
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`शब्दों के संग रूबरू’
सुधीर सक्सेना और बांग्ला के शुभाशीष भादुड़ी के संयुक्त हिंदी-बांग्ला संग्रह `शब्दों के संग रूबरू’ में अनुवादिका अमृता बेरा ने
दो भारतीय भाषाओं के कवियों के एक साथ देखने-दिखाने का उपक्रम किया है।
यह भी उल्लेखनीय है कि कवि की कविताएँ अनेक देशी-विदेशी भाषाओं में अनुवादित होकर चर्चित रही हैं।
`ईश्वर हां, नहीं… तो’
- यह संग्रह जो ईश्वर विषयक है, का नामकरण ही बेजोड़ अद्वितीय है।
- परमपिता और अदृश्य शक्ति को लेकर संग्रह की कविताओं में किसी संत कवि-सी दार्शनिकता और कोमलता है,
- तो साथ ही इतिहास-बोध के विराट रूप को दृष्टि में रखते हुए असमंजस, संशय, द्वंद्व और विरोधाभास जैसे
- अनेक घटक हमें अद्वितीय अनुभव और विस्तार देते हैं।
- इस संग्रह की अनेक कविताएं कवि के आत्म-संवाद के शिल्प से उजागर होती हैं।
- यहां उल्लेखनीय है कि जो ईश्वर से अपरिमित दूरी है
- अथवा होना न होना जिस संशय द्वंद्व में है,
- उसके अस्तित्व को कवि ने आशा और विश्वास से भाषा में नई अभिव्यंजनाएं प्रस्तुत की है।
- `ईश्वर: हां,…नहीं तो’ संग्रह पर मैंने विस्तार से विचार करते हुए `अतिसंवेदनशीलता में कविता का प्रवेश’ शीर्षक से एक आलेख भी लिखा
- जो इस पुस्तक के दूसरे संस्करण जिसका संपादक बुलाकी शर्मा ने किया उसमें संकलित है।
- सुधीर सक्सेना समकालीन कविता के विशिष्ट कवि हैं।
- विशिष्ट इस अर्थ में कि वे अब तक की यात्रा में सदैव प्रयोगधर्मी और नवीन विषयों के प्रति मोहग्रस्त रहे हैं।
- कहा जा सकता कि उनकी भाषा, शिल्प और कथ्य के स्तर अन्य कवियों से भिन्न हैं।
- संभवतः उनके प्रभावित और स्मरणीय बने रहने का कारण उनकी नवीनता और प्रयोगधर्मिता है।
- वे विषयों का हर बार अविष्कार करते हैं।
- या यूं कहें कि उनकी कविताओं के विषय अपनी ताजगी और नवीन दृष्टिकोण के कारण नवीन अहसासों, और ऐसी मनःस्थितियों में ले जाने में सक्षम हैं
- जहां हम प्रभावित हुए बिना रह नहीं सकते हैं।
- इतिहास और वर्तमान को वे जैसे किसी धागे से जोड़ते हुए, मंथर संगति से हमारे सामने उपस्थित करते हैं।
- उनकी कविताएं तीनों कालों में अविराम गति करती हुई अनेक व्यंजनाएं प्रस्तुत करती हैं।
- कहीं सांकेतिकता है तो कहीं खुलकर उनका कवि-मन अपने विमर्श में हमें शामिल कर लेता है।
- उनकी कविताओं के सवाल हमारे अपने सवाल प्रतीत होते हैं,
- कवि के द्वंद्व में हम भी द्वंद्वग्रस्त हो जाते हैं।
- वे अभिनव विषयों से मुठभेड़ करते हुए अपने चिंतन-मनन का वातायन प्रस्तुत कर
- हिंदी अथवा कहें भारतीय कविता के अन्य कवियों और कविताओं में वरेण्य हैं।
- ईश्वर विषयक `हां’ और `ना’ के दो पक्षों के अतिरिक्त उनके यहां जो `तो’ का एक अन्य पक्ष है, वह कवि का इजाद किया हुआ नहीं है।
- तीनों पक्षों को एक साथ में कविता संग्रह का केंद्रीय विषय बनाना कवि का इजाद किया हुआ है।
- हिंदी साहित्य में भक्तिकाल में ईश्वर के संबंध में `हाँ’ की बहुलता और एकनिष्टता है
- वहीं आधुनिक काल और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के रहते बीसवीं शताब्दी में ईश्वर के विषय में `ना’ का बाहुल्य है।
- सच है कि सुधीर सक्सेना अपने काव्यात्मक विमर्श में जिस `तो’ को संकेतित करते हैं
- वह बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध का सच है।
- कवि के अनुभव और चिंतन में जहां तार्किकता है वहीं इन छत्तीस कविताओं में निर्भिकता भी है।
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`तुम्हारी भौतिकी के बारे में कहना कठिन
मगर तुम्हारा रसायन भी मेल नहीं खाता
किसी और से, ईश्वर!‘
जैसी अभिव्यक्ति में पाप और पुण्य से परे हमारे आधुनिक जीवन के संताप देखे जा सकते हैं।
कवि की दृष्टि असीम होती है
और वह इसी दृष्टि के बल पर जान और समझ लेता है कि इस संसार में माया का खेल विचित्र है-
`कभी भी सर्वत्र न अंधियारा होता है।
न उजियारा।
यहां यह भी रेखांकित किया जाना चाहिए कि
सुधीर सक्सेना की काव्य-भाषा में प्रयुक्त शब्दावली एक विशेष प्रकार के चयन को साथ लेकर चलती है।
यह उनका शब्दावली चयन उन्हें भाषा के स्तर पर अन्य कवियों से विलगित करती विशिष्ट बनाती है।
`रात जब चंद्रमा बजाता है बांसुरी’
प्रेम कविताओं की बात हो तो उनके संग्रह `रात जब चंद्रमा बजाता है बांसुरी’ (2019) का स्मरण किया जाएगा।
संग्रह में सांसारिक और प्रकृतिक प्रेम एक ऐसे विन्यास में समायोजित है कि
कविताएं विराट को व्यंजित करती हुई, बेहद निजता को भी अनेक अर्थों में जोड़ती हुई भीतर समाहित करती हैं।
प्रेम में पगी इस संग्रह की प्रथम कविता `नियति’ को उदाहरण के रूप में देखें-
मैंने तुम्हें चाहा तुम धरती हो गईं
तुमने मुझे चाहा।
मैं आकाश हो गया
और फिर हम कभी नहीं मिले
वसुंधरा !
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- सुधीर सक्सेना जहां अपनी लघु आकार की कविताओं में तुलना और बिंबों का आश्रय लेते हैं
- वहीं औसत और लंबी आकार की कविताओं में घटना-अनुभवों के साथ विचारों का सूत्रपात करते हैं।
- कवि के दायरे में घर-परिवार के अनेक संबंधों के साथ देश-विदेश के अनेक मित्र हैं
- और वे भी उनके परिवार जैसे उनसे घनिष्ठता से जुड़े हैं।
- उनकी इस आत्मीयता के अदृश्य रंगों को कविता में उनके संग्रह `किताबें दीवार नहीं होतीं’ (2012) में देखा जा सकता है।
- मेरे विचार से समग्र आधुनिक भारतीय कविता में यह कविता संग्रह रेखांकित किए जाने योग्य है।
- इस संग्रह में कवि ने अपने आत्मीय मित्रों और परिवारिक जनों पर जो कविताएं लिखी हैं,
- वे असल में अनकी आत्मानुभूतियाँ और हमारा जीवन हैं।
- इस कविता संग्रह को हिंदी कविता में कवि के व्यक्तिगत जीवन के विशेष काल-खंडों और आत्मीय क्षणों का
- काव्यात्मक रूपांतरण कर सहेजने-संवारने का अनुपम उदाहण कहा जाएगा।
- व्यक्तिपरक कविता लिखना जहां बेहद कठिन है, वहीं अनेक खतरे भी हैं कि अभिव्यक्ति को किन अर्थों में लिया जाएगा।
- यह संग्रह सुधीर सक्सेना को हिंदी समकालीन कविता के दूसरे हस्ताक्षरों से न केवल पृथक करता है
- वरन यह उनके अद्वितीय होने का साक्ष्य भी है।
`किरच-किरच यकीन’
- सुधीर सक्सेना की कविता यात्रा को समृद्ध करने वाला कविता संकलन है `किरच-किरच यकीन’ (2013)।
- इसमें छोटी और मध्यम आकार की कविताओं में संक्षेप में कवि ने अपना काव्य कौशल दिखाया है
- वहीं शैल्पिक प्रयोग से कविताओं को प्रभावशाली बनाने का हुनर पा लिया है।
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`कुछ भी नहीं अंतिम’ (2015)
- यह संग्रह अपने नाम को सार्थक करता अपनी कविताओं से बहुत बार हम में यह अहसास जगाता कि
- सच में कवि के लिए कविता का कोई प्रारूप अंतिम और रुद्र नहीं है।
- संकलित कविताओं में कुछ शब्दों के प्रयोग को लेकर इससे पहले भी मुझे लगता रहा है कि
- सुधीर सक्सेना जैसे कवि हमारे भाषा-ज्ञान में भी विस्तार करते हुए नया वितान देते हैं।
- अनेक ऐसे शब्द हैं जो एक पाठक और रचनाकार के रूप में सक्सेना को पढ़ते मैंने पाया कि यह भाषा का एक विशिष्ट रूप है जिसे हमें सीखना है।
- कविता के प्रवाह और आवेग में कहीं कोई ऐसा शब्द अटक जाता है कि हम उस शब्द का पीछा करते हैं।
- हम शब्दकोश तक पहुंचते हैं और लोक में उसे तलाशते हैं।
- संग्रह की कविताओं के पाठ को फिर-फिर पढ़ने का उपक्रम असल में हमारा कविता में डूबना है। बहुत गहरे उतरना है।
- जहां हम पाते हैं कि एक ऐसा दृश्य है जो हमारी आंखों के सामने होते हुए भी अब तक हमसे अदृश्य रहा है।
- सुधीर सक्सेना की कविताएं हमें हमारे चिरपरिचित संसार में बहुत कम परिचित अथवा कहें समाहित अदृश्य संसार को दृश्य की सीमा में प्रस्तुत करती हैं।
- सच तो यह है कि `कुछ भी नहीं अंतिम’ संग्रह में गहन संभeवनाएं हैं।
- यहां उनकी काव्य-यात्रा के परिभाषित-अपरिभाषित अनेक संकेत देखे जाने शेष हैं।
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संग्रह की कविता `अंतिम’ पूरी देखें-
कुछ भी अंतिम नहीं।
कुछ भी नहीं अंतिम
शेष है एक घड़ी के बाद दूसरी घड़ी
उमंग के बाद ललछाँही उमंग
उल्लास के बाद रोमिल उल्लास
सैलाब के बाद भी एक बूंद
आवदार कहीं दुबका हुआ एक कतरा ख़ामोश
बची है पत्तियों की नोंक के भी आगे सरसराहट
पक्षियों के डैनों से आगे भी उड़ान
पेंटिंग के बाहर भी रंगों का संसार
संगीत के सुरों के बाहर संगीत
शब्दों से परे निःशब्द का वितान
ध्वनियों से पर मौन का अनहद नाद
कोई भी ग्रह अंतिम नहीं आकाशगंगा में
कोई भी आकाशगंगा अंतिम नहीं ब्रह्मांड में
अचानक नमूदार होगा कहीं भी कोई ग्रह अंतरिक्ष में अचानक अचानक फूट पड़ेगा मरू में सोता
अचानक भलभला उठेगा ज्वालामुखी में लावा
अचानक कहीं होगा उल्कापात
तत्वों की तालिका में बची रहेगी
हमेशा जगह किसी न किसी
नए तत्व के लिए
शब्दकोश में नए शब्दों के लिए
और कविताओं की
दुनियां में नई कविता के लिए।
यह एक कविता जिन विशद अर्थों और घटकों को समाहित किए हुए है,
अपने आप में वह एक साक्ष्य है कि कवि कहां और कितनी संभवानाएं तलाश करने में सक्षम है।
जिस अनिर्मित पंथ की बात आरंभ में मैंने की है, वह इन्हीं संभावनाओं से संभव होता है।
`यह कैसा समय’ (2021)
- संग्रह में समय के साथ बदलते राजनीति के घटकों को भी कवि ने समाहित किया है।
- यहां हमारे समय की त्रासदियों और आंकड़ों के जाल निर्भीकता से उजागर हुए हैं
- वहीं इस संग्रह में मेरे शहर `बीकानेर’ पर कविताएं हैं जो सुधीर सक्सेना जैसे कवि द्वारा ही संभव है।
`सलाम लुई पाश्चर’
`यह कैसा समय’ (2021) तथा `सलाम लुई पाश्चर’ संग्रह उनकी काव्य-यात्रा के ऐसे वृहत्तर मुकाम हैं, जिन्हें समय रहते पहचाना जाना आवश्यक है।
`111 कविताएं’
- सक्सेना की विविधता और बहुवर्णी काव्य सरोकारों को जानने-समझने के लिए
- उनके पूर्व प्रकाशित सात कविता-संग्रहों से चयनित `111 कविताएं’ (2016) मजीद अहमद द्वारा किया गया एक महत्त्वपूर्ण संचयन है।
- संपादक के कथन से सहमत हो सकते हैं।
- कि `सुधीर सक्सेना की कवियों की शक्ति, सुन्दरता के आयामों की विविधता ही कवि को समकालीन हिंदी कविता की अग्रिम पंक्ति में ला खड़ा करती है।
- साहित्य की यह एक त्रासदी है कि हमारे समय के रचनाकारों का समय पर आकलन नहीं होता है।
- हम साहित्य के शीर्ष बिंदुओं को पहचानते नहीं,
- संभवतः ऐसी ही न्यूनताओं को दूर करने के प्रयास में लोकमित्र से तीन पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं-
- जैसे `धूप में घना साया’ (सं. रईस अहमद लाली), `शर्म की सी शर्त नामंजूर’ (सं. ओम भारती)
- और `कविता ने जिसे चुना’ (सं. यशस्विनी पांडेय) सुधीर सक्सेना की रचनात्मकता के विविध आयाम प्रस्तुत करती हैं।
- `शर्म की सी शर्त नामंजूर’ के संपादक प्रसिद्ध कवि-आलोचक ओम भारती लिखते हैं-
- वह कवि, अनुवादक, संपादक, इतिहासकार, उपन्यासकार, पत्रकार, सलाहकार इत्यादि है।
- पैरोड़ी बनाने, लतीफ़े गढ़ने, तुके मिलाने, चौंकाने और हंसाने में, कह देने में ही शह देने में भी वह माहिर है।
- शर्तें वह नहीं मानता और मुक्तिबोध के शब्दों का सहारा लूं तो जिंदगी में धर्म की सी शर्त उसे शुरु से ही नामंजूर रही है।
- अपना रास्ता वह खुद चुनता है, और जहां नहीं हो, वहां बना भी लेता है।
- अभी सुधीर सक्सेना की कविता-यात्रा की विशद पड़ताल शेष है और उनकी रचनात्मकता रागात्मकता जारी है।
- इसलिए यह संभव है कि उनकी कविता-यात्रा से अभी हिंदी कविता के लिए कुछ अनिर्मित पंथ बनें
- क्योंकि उनकी कविताई लीक छोड़कर चली है और चलती रहेगी।

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