Thursday, September 19, 2024
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सुदर्शन चक्रधारी श्रीकृष्ण

सुदर्शन चक्रधारी श्रीकृष्ण
सुदर्शन चक्रधारी श्रीकृष्ण

भगवान कृष्ण के जन्मोत्सको श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के रूप में मनाया जाता है। कृष्ण जी का जन्म द्वापर युग में भाद्रपद माह के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को रोहिणी नक्षत्र में आधी रात को मथुरा के राजा कंस के कारागार में हुआ था। कृष्ण जन्माष्टमी मथुरा, गोकुल और वृंदावन में बहुत ही धूमधाम से मनाया जाता है। जो कि विश्व प्रसिद्ध है।कृष्ण जन्माष्टमी, जिसे जन्माष्टमी वा गोकुलाष्टमी के रूप में भी जाना जाता है, एक वार्षिक हिंदू त्योहार है जो विष्णुजी के दशावतारों में से आठवें और चौबीस अवतारों में से बाईसवें अवतार श्रीकृष्ण के जन्म के आनन्दोत्सव के लिये मनाया जाता है।

कृष्णा भक्ति/ DEVOTION FOR LORD KRISHNA

  • वैष्णव परंपरा में श्रीकृष्ण भत्ति का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। द्वापर युग के अंत काल में जन्म और मृत्य  को पIप्त   श्रीकृष्ण आज भी पूज्य हैं। लोग आज भी भत्ति व समर्पण भाव से इनकी पूजा करते हैं।
  • वसुदेव- देवकी से उत्पन्न अर्थात इस संसार में जन्म को पIप्त होने के बाद भी ये भगवान तुल्य माने जाते हैं। उन्हें विष्णु का अष्टम अवतार माना जाता है। महाभारत में अंकित विरणियों में इन्हें निष्काम कर्मयोगी, आदर्श दार्शनिर्क, स्थितप्रज्ञ, एक पत्नीव्रता, सर्वगुणसम्पन्न, सर्व पाप संस्पर्श शून्य, देवतुल्य एवं दैवी संपदाओं से सुज्जित महान महात्मा आदि विभूषणों से विभूषित करते हुए उन्हें शुद्ध, उत्तम चरित्रवान षोडश कलात्तयु योगीश्वर श्रीकृष्ण कहा गया है,  लेकिन पौराणिक ग्रंथों में उन्हें सोलह हजार रानियों के साथ राजसी और ऐश्वर्य  जीवन व्यतीत करने वाला बताया गया है, फिर भी वे आज भी भगवान की भांति पूज्य हैं।महाभारत व पौराणिक ग्रंथों में अंकित वर्णनों  के अनुसार श्रीकृष्ण विलासी हैं, तो महान त्यागी भी हैं। श्रीकृष्ण शांति प्रिय हैं, तो क्रांति प्रिय भी हैं। श्रीकृष्ण मृदुमृ दुहैं, तो वही कठोर भी हैं। श्रीकृष्ण मौन प्रिय हैं, तो अत्यंत वाचाल भी हैं। श्रीकृष्ण रमण विहारी हैं, तो अनासत्त योग के उपासक भी हैं।
  • श्रीकृष्ण में सब कुछ है, और सम्पूर्ण रूप में है। सम्पूर्ण त्याग- सम्पूर्ण विलास। सम्पूर्ण ऐर्श्वर्य- सम्पूर्ण लौकिकता सम्पूर्ण मैत्री  सम्पूर्ण शर्त्रुता अर्थात बैर, सम्पूर्ण आत्मीयता -सम्पूर्ण अनासत्ति।
  • महाभारत में अंकित वर्णनों  में षोडश कलायुत्त श्रीकृष्ण सत्य में पूजा  के योग्य हैं, इसलिए वे उस समय भी आदरणीय व पूज्य माने गए थे। किसी को इज्जत, सम्मान, आदर तभी पIप्त होता है, जब वह पूज्य हो।  श्रीकृष्ण को भी यह इज्जत, सम्मान, आदर का अधिकार उनकी सत्य ज्ञान, सच्ची समझ, और व्यवसायात्मिक बुद्बधि के कारण मिली सफलता के परिणामस्वरूप पIप्त हुई थी, और तब वे पूजा के योग्य माने गए थे। और सबके आदरणीय बन गए थे। आज भी वे पूज्य हैं, आदरणीय हैं, और सम्पूर्ण  विश्व के लोग उन्हें भत्ति व समर्पण   भाव से पूजा   करते हैं। इसे धर्मोन्नति समझ सदा -सर्वदा  कृष्णाराधना, कृष्णनाम, कृष्णकथा, कृष्णभत्ति में लीन रह श्रीकृष्ण नाम- जप- स्मरण करते हैंI
  • पौराणिक ग्रंथों में अंकित वर्णन  के अनुसार वे संसार का आनंद लेने वाले थे, लेकिन मोक्ष के भी अधिकारी थे। इसीलिए वे वासुदेव थे। वासुदेव का अर्थ है- वे संसार की सभी वस्तुओं  का आनंद लेते हैं, फिर भी वे मोक्ष के अधिकारी हैं। वसुदेव पुत्र वासुदेव असाधारण महामानवीय शत्तियों और उपलब्धियों के स्वामी थे।

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कृष्ण जन्माष्टमी का महत्व IMPORTANCE OF JANMASHTMI

सुदर्शन चक्रधारी श्रीकृष्ण

  • वासुदेव इतने शत्तिशाली थे कि सहस्त्रों लोग उनकी एक दृष्टि से ही डर जाया करते थे। सोलह हजार रानियाँ होने के बाद भी वे नैष्ठिक ब्रह्मचारी थे। अर्थात उनका हर क्षण- प्रतिक्षण भाव और समर्पण ब्रह्मचर्य के लिए ही था। उनके परब्ध कर्म  ब्रह्मचर्य के दिखाई देते थे, लेकिन उनके अंदर के भाव शुद्ध और सदैव ब्रह्मचर्य के समर्थक थे। जैसे कोई चौर्य कर्म करता है, लेकिन उसके भीतर के भाव अचौर्य अर्थात चोरी  नहीं करने वाले हों। ऐसे ही भाव नैष्ठिक होते हैं। अंतर्मन  से ही आने वाले भाव से ही आगामी जीवन के नए कर्म बंधते हैं। बाहर के कर्मों के साथ ही अंदर  के भाव होते रहते हैं। सभी वस्तुओं को पाँच इंद्रियों से ही देखा अथवा अनुभव किया जाता है कि
  • उनका आगामी जीवन के कर्म के खाते के लिए कोई महत्व है अथवा नहीं है। ऐसे ही नैष्ठिक भाव से सम्पन्न भगवान श्रीकृष्ण की आत्मा जागृत हो गई थी। इसीलिए वे नर से नारायण बन गए।
  • यह नैष्ठिक भाव श्रीकृष्ण को सम्यक दर्शन से पIप्त था। श्रीकृष्ण सुदर्शन चर्क्रधारी थे। और अपने सीधे हाथ की छोटी ऊँगली पर एक घूमता हुआ पहिया के समान सुदर्शन चक्र धारण किया करते थे। सुदर्शन चक्र अर्थात सम्यक् दर्शन अर्थात आत्म साक्षात्कार।

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भगवान कृष्ण और जैन धर्म / LORD KRISHNA AND JAIN RELIGION

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  • दर्शन अर्थात दृष्टि, और सुदर्शन अर्थात सही दृष्टि। अर्थात मैं शुद्धात्मा हूँ, का दर्शनर्श भाव। मैं शरीर नहीं बल्कि आत्मा हूँ- यह सही दृष्टि है। अज्ञानता के कारण ही लोग नाम से पहचाने जाने वाले इस शरीर व नाम के साथ इस संसार में भरंत और गलत दृष्टि से अपना जीवन व्यतीत कर रहे हैं कि मैं शरीर हूँ, अथवा मैं नामधारी हूँ। लेकिन जब आत्म साक्षात्कार होता है, तब सुदर्शन, अज्ञानता का नाश करके सही दृष्टि स्थापित होती है।
  • श्रीकृष्ण की सोलह हजार रानियाँ थीं और उनका जीवन भी वैभवशाली था, फिर भी उनकी सम्यक दृष्टि के कारण वे इन सभी सांसारिक वैभव से हमेशा अलिप्त रहे। बाहर से संसारिक कार्यों में लिप्त होते हुए भी, अंदर से वे हमेशा जागृतावस्था में रहते थे कि शरीर पृथक  है, और मैं शुद्धात्मा हूँ। मैं किसी भी क्रिया का कर्ता नहीं हूँ। उनका भौतिक शरीर कर्मों के नियम से अलिप्त नहीं था। इसीलिए वे कर्मों के प्रभाव से अलिप्त नहीं थे, लेकिन जब उनके परब्ध से वैभवशाली जीवन और अनेकों पत्नियाँ आईं, तब भी वे हमेशा इसी जागृति में रहते थे कि मैं शुद्धात्मा हूँ।जैनीजै मान्यता है कि यह सम्यक् दर्शन  अर्थात  आत्म साक्षात्कार उन्हें भगवान नेमिनाथ से पIप्त हुआ था।मान्यता है कि योगेश्वर कृष्ण अपने अगले जन्म में तीर्थंकर बनकर वापस आएँगे और करोड़ा लोगों को सही दृष्टि देक़र मोक्ष की ओर ले जाएँगे।
  • कन्हैया, श्याम, गोपाल, केशव, द्वारकेश या द्वारकाधीश, वासुदेव आदि नामों से संज्ञायित श्रीकृष्ण सोलह कलाओं- श्री धन संपदा, भू संपत्ति, कीार्ति संपदा, वाणी की सम्मोहकता, लीला की कला, कान्ति, विद्या, विमला, उत्कार्र्शत्ति, नीर-क्षीर विवेक, क्रिया कर्मण्र्म यता,, योगशत्ति, विनय, सत्य धारणा, आधिपत्य, अनुग्रनु  क्षमता- कलाओं के ज्ञाता थे, वे इन कला गुणों से सम्पन्न थे। कला अर्थात विशेष प्रकार का गुण।
  • भारतीय परंपरा में कलाएं सोलह प्रकार की मानी गई हैं।इन कलाओं के बल पर मनुष्य समाज में अपना एक अलग पहचान बनाने में समर्थ होता है। साधारण मनुष्य में अधिकत्तम पाँच कलाएं होती हैं। श्रेष्मनुष् मे अधिकतम आठ कलाएं होती हैं। लेकिन प्रजा को कंस के अत्याचारों से मुत्ति दिलाने के लिए माता देवकी के गर्भ से जन्म लेने वाले श्रीकृष्ण में सोलह कलाएं पाई जाती हैं। इसलिए वह सर्वज्ञानी और ब्रह्माण्ड के ज्ञानी कहलाते हैं।उन्हें षोडश कलायुत्त कहा गया है,जबकि विष्णु के अवतार भगवान श्रीराम बारह कलाओं का ही ज्ञान रखते थे।

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श्रीकृष्ण के मित्र सुदामा / LORD KRISHNA’S FRIEND SUDHAMA

सुदर्शन चक्रधारी श्रीकृष्ण

  • श्रीकृष्ण संबंधी महाभारत व पौराणिक ग्रंथों में अंकित वर्णनों  के समीचीन अध्ययन से स्पष्ट होता है कि श्रीकृष्ण मन, वचन और कर्म से भी धनी थे। उनके घर से कोई भी खाली हाथ वापस नहीं जाता था। उन्होंने अपने परम मित्र सुदामा को धन-धान्य से सम्पन्न कर दिया था। भगवान श्रीकृष्ण ने भू संपदा कला से पूर्ण होने के कारण ही द्वारका में विभिन्न झंझावातों के बाद भी वहाँ का राज-पाठ सुचारुपूर्वक संभाला था। जन कल्याण कार्यों में हमेशा आगे रहने के कारण ही श्रीकृष्ण लोकप्रियता व विश्वसनीयता को पIप्त कर लोक में ख्याति, संसार में प्रसिद्धि पIप्त कर कीार्ति संपदा सम्पन्न माने जाते हैं। वाणी की सम्मोहकता के गुण से परिपूर्ण  श्रीकृष्ण अपनी वाणी सम्मोहन कला से सबका मन मोह लेते हैं।
  • इसलिए उन्हें मोहन भी कहा जाता है।अपने जीवन में श्रीकृष्ण के द्वारा की गई लीलाओं की कलाओं के दर्शन मात्र से ही आनंद की पIप्ति होती है। श्रीकृष्ण के मखमंडल अर्थात चेहरे पर अवस्थित कांति से नजरें हटाने का मन नहीं करता। दर्शन मात्र से दर्शक सुध- बुध खोकर उनके हो जाते हैं। उनके रूप सौंदर्य से प्रभावित हो जाते हैं।वे सभी प्रकार की विद्याओं में निपुण , वेद-वेदांग, युद्यध और संगीत कला इत्यादि में पारंगत थे।वे मन में कोई छल- कपट नहीं रखने वाले सभी के लिए निष्पक्ष भाव रखने वाले विमला कला से युत्त थे।उनमें उत्कार्षिणिशत्ति अर्थात लोगों को उत्प्रेरित करने, लक्ष्य पाने के लिए पत्साहित  करने की अद्भ§त क्षमता थी। अपनी उत्कार्षित्ति  के बल पर ही उन्होंने महाभारत की युद्यभूमि में तीर- धनुष रख चुकेअर्जुन र्को युद्यध के लिए प्रेरित किया था। श्रीकृष्ण ने अपने नीर-क्षीर विवेक कला के ज्ञान से न्यायोचित फैसले लेकर धर्मयुत  हो रहे लोगों को सनातन वैदिक धर्म पर रूढ़ कराने में सफलता पाई थी।
  • अपने विवेक से लोगों को सही मार्ग सुझा  ने में सक्षमता प्रदार्शित कर उर्न्होंने विवेकशील होने का कई बार प्रदर्शन  किया था।वे सिर्फ उपदेश देने में ही नहीं बल्कि स्वयं भी कर्म ठर्मता प्रदार्शित कर ने अर्थात क्रिया कर्मण्र्मता में विश्वास रखते थे। अपनी योगशत्ति से वे आत्मा को परमात्मा से जोड़ने की कला में भी निपुण थे। वे सर्वज्ञार्नी, सर्वशर्त्तिमान होकर भी अहंकार भाव से नितांत दूर विनयशीलता की प्रतिमूार्ति थे। कठिन से कठिन परिस्थियों में भी सत्य का साथ नहीं छोड़ने वाले सत्य धारणा के ज्ञान से परिपूर्ण श्रीकृष्ण सत्यवादी थे।
  • कटु सत्य बोलने से भी गुज नहीं था।श्रीकृष्ण जोर- जबरदस्ती से किसी पर अपना आधिपत्य जमाने की प्रवृतिवृ के विरोधी थे। लोगों को जिनके आधिपत्य में सुरक्षा और संरक्षण मिलने की उम्मीद हो, उसे स्वयं अपना स्वामी मान लेने के लिए वे कहते थे। दूसरों के कल्याण में हमेशा लगे रहने की अनुग्रह क्षमता के कारण ही वे सदा परोपकार के कार्यों में ही संलग्न रहते थे। सहायता के लिए उनके पास पहुँचने वाला व्यत्ति की वे अपने सामर्थ्यानुसार सहायता करते थे।

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श्रीकृष्ण ‘माखन चोर‘/ LORD KRISHNA‘THE BUTTER THIEF’

  • श्री कृष्ण माखनचोर के रूप में भी जाने जाते हैं। दूध पोषण का सार है और दूध का एक परिष्कृत रूप दही है। जब दही का मंथन होता है, तो मक्खन बनता है और ऊपर तैरता है। यह भारी नहीं बल्कि हल्का और पौष्टिक भी होता है। जब हमारी बुद्धि का मंथन होता है, तब यह मक्खन की तरह हो जाती है। तब मन में ज्ञान का उदय होता है, और व्यक्ति अपने स्व में स्थापित हो जाता है। दुनिया में रहकर भी वह अलिप्त रहता है, उसका मन दुनिया की बातों से / व्यवहार से निराश नहीं होता। माखनचोरी श्री कृष्ण प्रेम की महिमा के चित्रण का प्रतीक है। श्री कृष्ण का आकर्षण और कौशल इतना है कि वह सबसे संयमशील व्यक्ति का भी मन चुरा लेते हैं।

भगवान कृष्ण के सिर पर मोरपंख /PEACOCK FEATHER ON THE HEAD OF LORD KRISHNA:

सुदर्शन चक्रधारी श्रीकृष्ण

  • एक राजा अपनी पूरी प्रजा के लिए ज़िम्मेदार होता है। वह ताज के रूप में इन जिम्मेदारियों का बोझ अपने सिर पर धारण करता है। लेकिन श्री कृष्ण अपनी सभी जिम्मेदारी बड़ी सहजता से पूरी करते हैं – एक खेल की तरह। जैसे किसी माँ को अपने बच्चों की देखभाल कभी बोझ नहीं लगती। श्री कृष्ण को भी अपनी जिम्मेदारियां बोझ नहीं लगतीं हैं और वे विविध रंगों भरी इन जिम्मेदारियों को बड़ी सहजता से एक मोरपंख (जो कि अत्यंत हल्का भी होता है) के रूप में अपने मुकुट पर धारण किये हुए हैं।

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श्रीकृष्ण जन्मोत्सव /  LORD KRISHNA’S BIRTH ANNIVERSARY

  • उनके इन्हीं गुणों के कारण आज भी लोग श्रीकृष्ण का नाम, जप, स्मरण नित्यप्रति किया करते हैं। भाद्रपद कृष्ण अष्टमी को श्रीकृष्ण जन्मोत्सव हर्षोल्लास पूर्वक भत्ति व समर्पण भाव मनाते हैं। दंडवत प्रणाम कर उनकी पूजा-अर्चना  करते हैं, और मनोवांछित कामना की पूार्ति हेतु पर श्रीकृष्ण प्रार्थना करते हैं।

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