Thursday, September 19, 2024
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श्रीराम का पुनरागमन अयोध्या में दिवाली

निष्काम कर्मयोगी भगवान श्री राम

भगवान श्री राम ने 14 वर्षों के वनवास के बाद जैसे ही अयोध्या की धरती पर अपने पद-कमल रखे.., अमा में भी अंतरिक्ष रोशनीमय हो गया। अयोध्या में दिवाली हो गई। रोशनी ही रोशनी.. ममता की रोशनी, भक्ति की रोशनी, विजय की रोशनी और गौरवमय आदर-सत्कार की रोशनी।

  • कतारों में सजे माटी के दीयों की रोशनी और समस्त चराचर के दिलों से निकलती उत्साह और उमंग की रोशनी।
  • दिवाली के त्योहार को लेकर कई प्रचलित और पौराणिक कथाएं हैं।
  • उनमें से सबसे प्रमुख कथा भगवान राम के अयोध्या आगमन की है।

श्रीराम का अयोध्या पुनरागमन

  • लंका पर विजय प्राप्त करने के बाद भगवान राम, माता सीता, लक्ष्मण और वानर सेना के साथ 14 वर्ष के बाद पुष्पक विमान से अयोध्या लौटे।
  • इस खुशी में अयोध्यावासियों ने घंटा-घड़ियाल और शंख के नाद के साथ दीप जलाकर उनका भव्य स्वागत किया था।
  • अंतरिक्ष श्री राम की जय-जयकार से गूंज उठा

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अपार महिमा

  • राम लला केवल दशरथ या कौशल्या के नहीं, जन जन के हृदय बिहारी हैं। कैसे कोई उनकी अपार महिमा से पार पा सकेगा।
  • परमब्रहम् का अवतार तो परिस्थितिवश सभी युगों में होता है,
  • पर त्रेता युगीन अवतार के दौरान वे मानवीय मर्यादा की सीमाओं से चतुर्दिक घिरे हुए थे।
  • ऐसी ही मर्यादित छवि के कारण वे मर्यादा पुरूषोत्तम राम कहलाये।

पूज्य श्रीराम

  • राजकुमार श्रीराम अपने सात्विक चरित्र बल, ज्ञान, शील, औदार्य, शरणागत वत्सलता के लिए सर्वप्रिय थे।
  • वे महान राजनीतिक सूझबूझ और अद्भुत पराक्रम के द्वारा कोटि-कोटि नर-नारियों के कंठहार बने।
  • इस तरह वे विष्णु अवतार पुरूषोत्तम भगवान श्रीराम के रूप में पूज्य हुए।

भगवान का चरित्रगान

  • हिन्दी साहित्य के अतिरिक्त अन्य भाषाओं में भी रामचरित का अत्यंत मार्मिक चित्रण प्राचीन कवियों ने किया है।
  • फिर भी यह एक शोध का केंद्र बना हुआ है।
  • राम के चरित्र को निम्न प्रामाणिक ग्रंथ जीवंत बनाते हैं-
  • गोस्वामी तुलसीदास कृत `रामचरित मानस’
  • संस्कृत में महर्षि बाल्मीकि कृत `रामायण’
  • कालिदास कृत `रघुवंश महाकाव्यम’, `उत्तर राम चरित’,
  • कृतिवास कृत `बंगला रामायण’
  • उर्दू में `चकवस्त’,
  • महर्षि कंबन कृत `कंबन रामायणम्’ आदि
  • एक नहीं सहस्रों हेतु हैं जगन्नियन्ता राम के अवतार के।

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राम अवतार के कारण

  • स्वयंभु मनु और देवी शतरूपा का सहस्र वर्षों का तप, नारद का विष्णु को शाप इसे हेतु में शामिल हैं।
  • राजा प्रताप भानु को ब्राहमण जनों का सामूहिक शाप, लंकाधिपति रावण का तप इसका कारण है।
  • ब्रहमा से नर और वानर द्वारा मारे जाने का वरदान, शिवजी के गणों को महामुनि नारद का शाप रामअवतार के हेतु हैं।
  • उपरोक्त लिखित घटनाएँ ऐसे कुछ आवश्यक कारण हैं जो रामजन्म के हेतु को स्पष्ट करते हैं। ‘परित्रणाय साधुनां विनाशाय च दुष्कृताम’ स्वयं में एक अति वृहद् कारण है।

अवतरण

  • चारों वेद और अठारह पुराण जिसका निरंतर गुणगान करते हैं,
  • वही श्री परमात्मा तत्व अनेकानेक हेतुओं से त्रेता युग में अवध नरेश दशरथ के पुत्र श्री राम के रूप में आविर्भूत हुआ।
  • लक्ष्मण, भरत, शत्रुध्न के रूप में निज आयुधों (शंख, चक्र, गदा, पदम) समेत धरा पर वे अवतरित हुए।
  • यह भी एक कारण है परात्पर ब्रहम् के विष्णु स्वरूप ने किसी सामान्य गृहस्थ के घर जन्म न लेकर नृप दशरथ के घर जन्म क्यों लिया?
  • उत्तर साफ है, हिंदू शास्त्रों में राजा को ईश्वर के बाद दूसरा स्थान दिया जाता है,
  • क्योंकि वह न्याय, सुरक्षा, प्रजा पालक तथा उनके योगक्षेम वहन का प्रतीक स्वरूप होता है।
  • इतना ही नहीं, राजा को भगवान का प्रतिनिधि भी माना जाता है।
  • गीता में योगेश्वर कृष्ण ने स्वयं अपने श्रीमुख से उच्चारित किया है ‘नाराणां च नराधिवम(10/27)।’

मानसकार तुलसी, राम-कृपा से सचमुच तुलसी बन गये। प्रभु के जन्म का हेतु बताते हुए वे कहते हैं-

असुर मारि थापहिं सुरूह,

राखहिं जिन श्रुति सेतु

जग विस्तारहिं विमल जस

राम जन्म कर हेतु।

और भी कहा

जब जब होहिं धरम कै हानी,

बाढहिं असुर अद्यम अभिमानी

तब तब धारि प्रभु मनुज शरीरा

हाहिं नाथ भव सज्जन पीरा।

राक्षसी प्रवृत्तियों का आतंक

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जिस कालखंड में राम का जन्म हुआ, उस समय राक्षसी प्रवृत्तियां पूरी तरह पनप चुकी थीं,

साधु-असाधुओं द्वारा सताये जाने लगे थे।

सुरा-सुंदरी ने समाज की नैतिकता पर परोक्ष रूप से राक्षस जाति का अवलंबन लेकर धावा बोल दिया था।

ऋषि-मुनियों का पिशाचों द्वारा भक्षण किया जाने लगा था।

धरा पाप के भार से बोझिल हो उठी थी।

अयोध्या नरेश दशरथ दानवों के राजा को परास्त कर देवासुर संग्राम में विजयी हो चुके थे।

अतः यह अपेक्षा समाज द्वारा की जाने लगी कि राक्षस राज रावण की दानवीयता का हनन उन्हीं की संतान द्वारा ही संभव है।

महर्षि विश्वामित्र और वशिष्ठ जी

  • सदैव एक दूसरे के विरोधी थे महर्षि विश्वामित्र और वशिष्ठ।
  • एक पुरूषार्थवादी। (विश्वमित्रः उण्हूं राम भजहूं भव चापा) तो दूसरे प्रारब्धवादी (वशिष्ठ सुनहु भरत भावी प्रबल),
  • एक सत्संग का पक्षधर तो दूसरा तपस्या का हिमायती।
  • सर्वथा विपरितार्थक थे दोनों परम तपी ऋषि, पर राम-जन्म के हेतु को समझने पर ये दोनों एक स्वर से सहमत हो गये थे।

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राम की शिक्षा-दीक्षा

  • दोनों ने अपने इष्ट देव को पहचान लिया था। बालपन में गुरू वशिष्ठ ने पूरे मन से आयुधों समेत राम को शिक्षा दी।
  • जब महर्षि विश्वामित्र ने अयोध्या आकर यज्ञ रक्षार्थ नृप दशरथ से राम-लक्ष्मण की मांग की तो दशरथ विचलित हो उठे,
  • पर कुलगुरू वशिष्ठ मुनि विश्वामित्र के भाव को समझ गये।
  • उन्होंने राजा दशरथ से राम-लक्ष्मण को जाने देने का आग्रह किया।
  • इस प्रकार शिक्षा प्राप्ति के उपरांत राम को दीक्षा देने का कार्य मुनि विश्वामित्र ने किया। शस्त्र-शास्त्रों में निपुण किया।
  • दो गुरूओं ने मिलकर राम को गढ़ा।
  • परोक्ष में वे समाजोद्धार हेतु एक अभिनव पुरुष की रचना में संलग्न थे और यह तात्कालिक परिस्थितियों की मांग थी।

मिथिला में राम

  • मिथिला जाते समय मार्ग में राम ने गौतम पत्नी अहिल्या को चरण स्पर्श देकर शाप मुक्त कर दिया।
  • राम ने उसे पुनः उसका सम्मान दिलाया।
  • सीता स्वयंवर में शिव का धनुष भंग कर सीतावरण किया और मिथिला को अयोध्या से जोड़ा।
  • भृगु पुत्र परशुराम को अपने धैर्य, शौर्य और साहस तथा उदारता से तुष्ट कर क्षत्रिय के कर्तव्यों को अनुपालन किया।
  • मिथिला से अयोध्या लौटते ही उन्हें मिला चौदह वर्ष की अवधि वाला बनवास।

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वन गमन

  • राम के बन गमन में भी राष्ट्रीय ऐक्य दृढ़ीकरण का प्रयास निहित है।
  • देश के बाहर से आई राक्षसी शक्तियों के उत्पात से उत्तर और दक्षिण क्षेत्र के संबंधों में बाधा आ गई थी।
  • कंब रामायणकार के अनुसार शिवजी के ब्याह के समय दक्षिण के इतने लोग उत्तर चले आये कि सामाजिक संतुलन ही बिगड़ गया।
  • उनके बाराती कौन-कौन थे, यह बताने की संभवतः आवश्यकता नहीं।
  • कालांतर में इन्हीं बारातियों ने स्वभावानुरूप व्यवहार करते हुए उत्पात मचाना शुरू कर दिया।
  • ऐसी ही विषम परिस्थितियों में राम ने अपनी वन यात्र प्रारंभ की।
  • भयंकर, बलवान, राक्षस रूपी विष वृक्ष को जड़ समेत समाप्त करने वैद्य के समान श्रीराम वन में आ पहुंचे।

राक्षस-संहार

  • और फिर शुरू हुआ राक्षस-संहार। राक्षस जाति में खलबली मच गई।
  • अनीति रूपी शूर्पनखा को अपने नाक-कान गंवाने पड़े।
  • अनीति पोषक खर-दूषण भी काल के ग्रास बन गये।
  • द्रुत गति से अधर्म का नाश होते देख राक्षस राज रावण भयभीत हो उठा।

सीता अपहरण

  • विनाश काले विपरीत बुद्धि के चलते उसने सती सीता का अपहरण कर राक्षस जाति के समूल नाश की नींव रख दी
  • और श्रीराम के बनागमन हेतु को पूर्ण करने में परोक्ष सहायता की।
  • देवी सीता के लंका में प्रवेश करते ही उस पर शनि की साढ़े साती चल गयी।
  • लंका के स्वर्ण परकोटे से दूर अग्नि पिण्ड के समान अशोक वाटिका में सीता दहकती रही।
  • उस अग्नि के ताप से लंका की स्वर्णिम प्राचीर पिघलने लगी।
  • अन्ततः विभीषण जैसे अनीति विरोधी को छोड़ सारी राक्षस जाति पिघलते स्वर्ण में दब कर रह गई।
  • उस परम शक्ति अवतार का परम हेतु पूर्ण हुआ।

रावण का विनाश

  • रावण का विनाश कर सीता की मुक्ति न केवल नारी जाति का सम्मान एवं पुनरूद्वार था
  • वरन दया, ममता, शील एवं औदार्य (जिनकी नारी प्रतीक है) आदि उदात्त गुणों की इस संसार में पुनर्स्थापना थी।

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लंका विजय पश्चात प्रस्थान

  • श्री राम लंका पर विजय प्राप्त करने के बाद सीधे अयोध्या नहीं आए थे,
  • बल्कि उनका पुष्पक विमान रास्ते में कई अन्य जगहों पर भी रुका था।
  • प्रभु राम के पड़ाव को लेकर रामलला के मुख्य पुजारी आचार्य सत्येंद्र दास बताते हैं कि
  • भगवान राम वन के लिए जाते समय जिन ऋषि-मुनियों से मिले थे, लंका विजय करने के बाद उनसे मिलते हुए अयोध्या लौटे।
  • अगस्त्य ऋषि समेत कई ऋषि-मुनियों से आशीर्वाद लेते हुए श्रीराम आए थे।
  • इतना ही नहीं, वो चित्रकूट अपने सखा निषादराज से भी मिलने के लिए गए थे।

तुलसीदास की नजर में लंका कांड

रामचरितमानस के लंका कांड में प्रभु श्री राम के अयोध्या लौटने का वर्णन करते हुए गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है…

तुरत विमान तहां चली आवा।
दंडक वन जह परम सुहावा ।।
कुंभजादि मुनि नायक नाना।
गए राम सबके अस्थाना।।

अर्थात विमान वहां पहुंचा, जहां बहुत ही सुंदर खूबसूरत दंडकवन था।

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यहीं पर महर्षि अगस्त्य के साथ कई ऋषि-मुनि थे। भगवान राम सब के स्थान पर गए और आशीर्वाद लिया। फिर पुष्पक विमान पर सवार होकर वहां से आगे बढ़े।

उसके बाद पुष्पक विमान चित्रकूट पहुंचा।

चित्रकूट आए जगदीसा।।
तहँ करि मुनिन्ह केर संतोषा।
चला बिमानु तहाँ ते चोखा।।

यहां पर भी ऋषि-मुनि भगवान राम का इंतजार कर रहे थे।

जब राम चित्रकूट पहुंचे, तो ऋषि-मुनियों ने भगवान का स्वागत किया और आशीर्वाद दिया।

तुलसीदास ने आगे लिखा है…

पुनि देखु अवधपुरी अति पावनि।
त्रिबिध ताप भव रोग नसावनि।

इस समय भगवान राम अतिप्रसन्न थे और आंखों में आंसू थे, लेकिन बावजूद इसके वे अयोध्या नहीं गए।

वे प्रयागराज में रुके, जहां उन्होंने संगम में त्रिवेणी स्नान किया। उन्होंने वानरों और ब्राह्मणों को दान दिया।

इसके बाद प्रभु श्रीराम ने अयोध्या के लिए प्रस्थान किया।

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महामानव का आदर्श चरित्र

श्रीराम के आदर्श चरित्र से जहां सामान्य मानव प्रेरणा लेकर उसे निज जीवन में आत्मसात करने का प्रयास करता है,

वहीं साधु, संत, महात्मा उनकी यह मानवी लीला देख कर श्रद्धानुराग से विह्वल और आश्चर्यचकित रह जाते हैं।

श्रीराम एक आदर्श पुत्र, पति और बंधु के रूप में समाज के सम्मुख एक आदर्श थे।

जब उन्हें राजपद देने की बात आयी तो विह्वल होकर वे बोले

विमल वंश यहु अनुचित एक बंधु बिहाइ बड़ेहि अभिपेकू

भाइयों से प्रेम की भावना इसी पंक्ति में स्पष्ट हो जाती है।

युवराज, तदनंतर राजा के रूप में प्रजावत्सल, एक योद्धा थे।

अपने परात्पर रूप में असद्वृत्तियों के ऊपर सद्वृत्तियों के विजय प्रतीक थे पुरूषोत्तम राम।

श्रीराम सच्चरित्रों के समुच्चय थे। वे समदर्शी थे।

विषम परिस्थितियों में साहस तथा अनुकूल परिस्थितियों में धैर्य उनके परम सहयोगी थे।

आदि कवि बाल्मीकि तथा मानसकार तुलसी ने उन्हें एक निष्काम कर्म योगी मानते हुए उन्हें परमात्मा के स्वरूप में प्रतिष्ठित कर दिया।

उन्होंने उनके आदर्श लौकिक चरित्र में अलौकिकता के दर्शन किये थे।

एक मानव चरित्र को जी कर उसे पुरूषोत्तम ने महामानव बना दिया और

सदैव के लिए समाज के सम्मुख मानव की कोटि से ऊपर उठ कर महामानव बनने का एक मापदंड रख दिया।

आइये हम भी मानव की कोटि से ऊपर उठकर महामानव बनने का एक सम्मिलित प्रयास करें।

यह लेख सामान्य जानकारी पर आधारित है।

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