स्नेह और आत्मीयता के धागे से जुड़े इनके दृढ़तम रिश्ते की मिसाल देते थे, पहचान के लोग। एक-दूसरे को एक-दूसरे के लिए जीते थे ये। कोई नाम नहीं था, इस रिश्ते का!
चारों ओर अथाह जलराशि! चट्टानों से टकराती समुद्र की उत्तुंग लहरें! समगति से बहती पवन! कालिमा युक्त अंबर। सूरज की पहली किरण का इंतज़ार करती, उत्कंठित, एक चट्टान पर बैठी तीन जोड़ी आँखें।
आज मुँह अंधेरे ही तीनों जाग गये थे। समुद्र के किनारे सूर्योदय का नज़ारा करने जो जाना था उन्हें। एक-एक जोड़ी कपड़े और टॉवेल लेकर वे प्रात चार बजे ही समुद्रतट पर पहुँच गये थे। कितनी सुखद थी, उगते भास्कर की अरुणिमा। लाल रंग से रंगा क्षितिज, जिस पर उड़ते विहंगों की काली-सी परछाई। तीनों भरपूर जी रहे थे उन पलों को, खोये हुए से। खुद में, प्रकृति में डूबे तीनों मन अपने-अपने कल्पना लोक में विचर रहे थे। एक-दूसरे के अस्तित्व का भान भी उन्हें नहीं था।
चढ़ता सूरज भला कब अपनी गति बदलता है! वह तो अपनी गति से ऊपर चढ़ ही गया। परिदृश्य भी अब सुनहरा हो गया, पर ये तीनों थे कि अब भी अपने चारों ओर अरुणाई ही महसूस कर रहे थे। अब भी उषाकाल के उस सुंदरत्तम क्षण को जी रहे थे।
काल का चक्र तो सतत् चलता रहता है। भोर से मध्याह्न और मध्याह्न से संध्या बेला! आज से कल, कल से परसों.., बरसों.., दशक.., सदियाँ.., सहस्राब्दियाँ.. एक के बाद एक क्रमश: बीतती चली जाती हैं! कालजयी तो वह क्षण होता है, जिसे इंसान पूरी तरह से जी लेता है। वह क्षण कभी नहीं बीतता।
सहसा वायु का एक तेज़ झोंका आया। समुद्र की एक बड़ी-सी लहर इठलाती, बलखाती तीव्र वेग से आई और उस चट्टान सहित उन तीनों को पूरी तरह से भिगोती हुई, उसी वेग से लौट गयी, जिस वेग से आई थी।
नव भास्कर के सौंदर्य का पान करते इन लोगों को थपकी देकर जगाने के लिए ही मानो वह लहर आई थी। ये आपे में आये। क्षितिज की अद्भुत छटा को मंत्रमुग्ध होकर देखते हुए सात-वर्षीय जिज्ञासु धैर्य ने पूछा,
`क्या हम उस जगह पर पहुँच सकते हैं? देखो, वहाँ पर आसमान और धरती मिल रहे हैं! सूर्य को भी छू सकते हैं, वहाँ जाकर। बिल्कुल ज़मीन पर ही तो है सूर्य!’
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`बेटा, कहते तो हैं कि उस जगह पर कोई नहीं जा सकता है। धरती और आकाश के उस मिलन-स्थल को वहाँ तक जाकर आज तक कोई नहीं देख पाया। पर, सच तो यह है कि यदि हममें इच्छाशक्ति हो, हमें चाहत हो, दृढ़ आत्मविश्वास हो तो उस स्थान को, उस क्षितिज को हम यहाँ बुला सकते हैं। वहाँ जो कुछ भी है, बिल्कुल यहाँ जैसा ही तो है बेटा। वहाँ भी समुद्रतट है, रेत है। समय का चक्र वहाँ भी चल रहा है.. नहीं देखकर भी हम वहाँ की चीजों को देख सकते हैं।’
कृति की बातें धैर्य को पता नहीं कितनी समझ आईं!
अपनी समझ से माँ की बातों को बूझता वह तो दौड़ पड़ा गीली सुनहरी रेत से खेलने।
कृति और राज अब भी उस पाषाण पर ही बैठे थे। निरंतर गतिमान लहरों और इन लहरों की ताल पर थिरकते दूरस्थ-दूरगामी जलयानों को देखते, कल्पना लोक में विचरते।
`राज, कितना अच्छा होता, जो सब कुछ यहीं थम जाता।
तुम, मैं, अपना प्यार धैर्य और यह निसर्ग मन की शांति, आत्मा की तृप्ति!’
`थामकर रख लो ना, तुम सब कुछ। कौन तुम से छिनकर ले जा सकता है, तुम्हारी इस संजोइल संपदा को?
क्या वह क्षण आज भी हममें जीवित नहीं है, जब हमारे साथ अमि, श्रुति और शौर्य भी थे?’
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उस दिन भी समुद्र का तट था, पर पश्चिमी नहीं पूर्वी।
उस दिन भी अरुणाभ क्षितिज था।
अरुण था, पर उदयाचलगामी नहीं, अस्ताचलगामी।
उस दिन भी सबने चाहा था, काश! वक्त यहीं ठहर जाए। फिर क्या वक्त ठहरा नहीं था?
यदि नहीं ठहरा, फिर आज कैसे वह पल महसूस हो रहा है?
याद है तुम्हें, उस दिन हम कपड़े भी लेकर नहीं गये थे। नमकीन जल से स्नान के पश्चात् गीले कपड़ों में ही सूखे वस्त्र, गर्मी व भोजन की तलाश में निकल पड़े थे।
मार्ग में सौभाग्यवश लुंगियों की एक दुकान नज़र आ गई थी और हम सबके सब लुंगीधारी बन गये थे।
फिर एक रेस्तरां में व्हिस्की, जीन और पनीर टिक्के का दौर चला था।
स्नेह और आत्मीयता के धागे से जुड़े इनके दृढ़तम रिश्ते की मिसाल देते थे, पहचान के लोग।
एक–दूसरे को एक–दूसरे के लिए जीते थे ये। कोई नाम नहीं था, इस रिश्ते का!
`क्या वह क्षण आज भी हममें जीवित नहीं है, जब हमारे साथ अमि और श्रुति भी थे?’
शौर्य और धैर्य तो तब इस दुनिया में नहीं आये थे! सिर्फ चार ही जानें थीं।
जानें चार क्या थीं, एक ही थीं, शरीर चार थे।
घोर अंधेरी, काली रात थी, शिशिर की। बिजली भी गुल थी। मात्र एक छोटी-सी मोमबत्ती थी, धीमी-धीमी, टिमटिमाती, पिघलती।
दीवार पर एक टिक-टिक करती घड़ी भी तो थी, समय को आगे बढ़ाती, समय का प्रतिनिधित्व करती।
राज तो शरीर में भी भेद नहीं मानना चाहता था।
उसके तर्क-वितर्क का अंधा समर्थन कृति, अमि और श्रुति ने भी किया था और चारों शरीर एक हो गये थे।
समय थम गया था।
चारों ने एक-दूसरे को जीया था, उस समय को जीया था। वो तो अचानक कृति के पैर की ठोकर काँच की गिलास को लगी थी।
और उसकी छनछनाहट ने चारों को समय के चक्र से बंधे इस जहान का अहसास करा दिया था।
काल तो गुज़र गया, पर वह क्षण आज भी राज और कृति के अंतर में ज़िंदा है, कालजयी है।
राज की अनोखी, दार्शनिक और अव्यावहारिक बातें अक्सर इन चारों के बीच चर्चा का विषय होती थीं।
और सबके प्यारे, गहरे हृदय वाले, चंचल, वाचाल, शरारती राज की बातों को अंतत सभी की सहमति भी मिल ही जाती थी।
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`क्या वह क्षण आज भी जीवित नहीं है, जब अमि ने हमारे अनाम रिश्ते को, हमारी आत्मीयता को दिखावे का नाम दिया था?’
`हाँ, आज भी वह क्षण जीवित है, राज एवं कृति के आहत मन उस क्षण के गवाह हैं।
काल ने कोशिश की थी, जीतने की।
राज एवं कृति के अंत:स्थल में जीवित पलते क्षणों को अपना ग्रास बनाने की।
अमि-श्रुति को इनसे अलग कर। अमि-श्रुति की आत्मीयता को इनसे अलग कर।
एक कोशिश काल ने सदियों पूर्व भी की थी, सत्यवान को अपना ग्रास बना सावित्री से जीतने की।
पर क्या वह सफल हो पाया था। सत्यवान तो कमज़ोर था, चल पड़ा था काल के साथ, पर सावित्री!
वह तो अपने अटूट प्यार, सतीत्व और आत्मसंबल से कालजेय बन गयी।
शायद अमि व श्रुति भी कमज़ोर पड़ गये थे।
राज और कृति स्वयं को काल के सामने नतमस्तक नहीं मानते।
अभी भी हर क्षण, हर पल, हर घड़ी अपने इन दोनों आत्मीयों को महसूसते हैं।
उनके साथ बिताए लम्हों को जीते हैं।
अमि, श्रुति अलग होते हुए भी आज इनके साथ हैं।
उतना ही आत्मीय, उतना ही स्नेहासिक्त और उतना ही…
ताज़गी भरा रिश्ता अनुभूत होता है, राज और कृति को एक लंबे काल-अंतराल के बाद आज भी।
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समुद्रतट पर एक वृहताकार शिला में बैठे दूर क्षितिज को निहारते, वे वर्तमान और अतीत को जीत थे।
राज और कृति अपनी संजोइल संपदा को संवार रहे थे,
तभी गीली रेत से सना धैर्य अंजुलि में शंख और सीपियाँ बटोर कर लाया और कहने लगा,
`देखो! दूर क्षितिज में मुझे अमि काका, श्रुति काकी और शौर्य दिखाई पड़ रहे हैं।
आप कहती हैं ना कि समय के चक्र ने उन्हें हमसे अलग कर दिया है।
पर माँ, देखो, मैं जीत गया, हम जीत गये। समय को हमने हरा दिया।
देखो माँ, शौर्य के हाथों में भी शंख हैं। वह मचल रहा है शंख घर ले जाने के लिए!
माँ, बाबूजी हम भी ये शंख अपने साथ ले चलें?
प्रकृति, धरती माता तो इतने प्यार से हमें ये सब देती हैं, फिर काल हमसे क्यों छिन लेता है?’
कृति व राज क्या उत्तर देते। उन्हें स्वयं इस प्रमेय का हल ज्ञात नहीं था।
वे मुस्कुरा उठे व नन्हा धैर्य सीपियों व शंखों की भरी मुट्ठियों से मानो विश्व का सर्वाधिक धनी हो गया।(इश्कु)
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