Thursday, September 19, 2024
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समन्वय साधने का अनमोल मार्ग महावीर का स्यादवाद

Bhagwan Mahavir Swamy

समन्वय साधने का अनमोल मार्ग

महावीर का स्यादवाद

जो मैं कहता हूँ, वही सत्य है, बाकि सब झूठ है या गलत है। ये एक ऐसी भावना है जो आज देशों, समाजों और मानवीयों के बीच ऐसी पैठी हुई है कि इसके कारण हर जगह वैमनस्य, ईर्ष्या, दुश्मनी और अपराध जैसी कुप्रवृत्तियों ने जड़ जमा रखी है।

जैन धर्म के 24 वें तीर्थंकर महावीर स्वामी का स्यादवाद ऐसे समय में गहरी शिक्षा देता है।

स्यादवाद में महावीर ने बताया कि एक सत्य विभिन्न रूपों में हमारे सामने प्रस्तुत होता है।

जो रूप हमारे सामने प्रस्तुत होता है, वह ही संपूर्ण सत्य नहीं माना जाना चाहिए।

यह सत्य को देखने वाले की दृष्टि पर निर्भर करता है कि वह सत्य का कौन सा पक्ष देख रहा है।

उसे किस मानसिकता से वर्णित कर रहा है।

किसी भी वस्तु में अनन्त गुण होते है। कोई व्यक्ति उसके एक गुण को देखता है तो वह सम्पूर्ण सत्य नहीं देख रहा है।

वह केवल उसके एक अंश को देख रहा है। इस संसार में जितने भी मत हैं, वे किसी वस्तु को आंशिक रूप से ही देख रहे हैं।

एक हाथी और 6 दृष्टिहीन

जैन शास्त्रों में इसे एक हाथी और 6 दृष्टिहीन लोगों के एक दृष्टांत के माध्यम से समझाया गया है। एक दृष्टि दिव्यांग ने हाथी की सूंढ़ को पकड़ा तो उसे हाथी अजगर जैसा लगा।

दूसरे ने हाथी की पूंछ पकड़ी तो उसे हाथी झाड़ू जैसा लगा। तीसरे ने हाथी के पैर पकड़े तो उसे हाथी खम्भे के समान लगा।

चौथे ने हाथी के कान पकड़े तो उसे हाथी सुपड़े के समान लगा।

किसी ने हाथी के दांत पकड़े तो उसे हाथी एक डंडे के समान लगा।

इन सब दृष्टिहीन लोगों ने एक-एक अंग पकड़ा था इसलिए उन्हें हाथी अलग-अलग दिखाई दिया।

लेकिन यदि कोई सम्पूर्ण हाथी देखेगा तो उसे हाथी एक अलग ही सम्पूर्ण रूप में दिखेगा।

महावीर ने समझाया था कि किसी वस्तु के एक ही पक्ष को देखकर उसे ही संपूर्ण सत्य नहीं जान लेना चाहिए।

स्यादवाद विभिन्न मतों के बीच उपजे विवादों को, मतभेदों को दूर करता है। यह सब लोगों में समन्वय साधने का अनमोल मार्ग है। स्यादवाद के द्वारा संसार के मतभेदों का निवारण किया जा सकता है। शांति लाई जा सकती है।

भारत वर्ष में हजारों सालों पुरानी संस्कृति चली आ रही है।

देश-काल और भाव के अनुसार इन संस्कृतियों में कुछ नई बातें जुड़ती रहीं।

कुछ घटती गईं, कुछ का कायाकल्प हुआ और नये रूप में वे प्रस्तुत हुईं।

लेकिन महावीर और बुद्ध की इस धरती की संस्कृति में घुली-मिली दया, करूणा और सहकार की भावना देश-काल-भाव से अछूती रहीं। इसकी मूल आत्मा जस की तस है।

इसमें सभी को साथ लेकर आगे बढ़ने का भाव है।

सभी से निरपेक्ष रहते हुए आत्म कल्याण का भाव है।

यह आज भी लोगों को आत्मिक रूप से समृद्ध करता है।

 

 

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