हर वर्ष नवरात्रों में कन्याओं का पूजन किया जाता है। पूजा तो ठीक है पर हमें इस दिन संकल्प लेना होगा कि उन्हें उपेक्षा, दमन और गर्भ में मरने से बचाएँगे। नवरात्रि में लें कन्या सुरक्षा का संकल्प। करें शक्ति की सही उपासना।

कन्याओं की सुरक्षा के लिए हों संकल्पबद्ध
भारत में कन्याओं में देवी के दर्शन किये जाते हैं। अच्छा लगता है नारी को सदियों तक पूजने वाले देश में यह देखकर। पर, सच क्या है यह भी छुपा नहीं है किसी से। नौ दिन का सम्मान, पूजन, खिलाना पिलाना तस्वीर का एक पहलु है। इसका दूसरा पहलू है रोज की दुत्कार, उपेक्षा, दमन, गर्भ में मार देने की प्रवृत्ति। और यही है आज का सच। हमें कन्याओं की सुरक्षा के लिए संकल्पबद्ध होना होगा।
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बेटियों को तरजीह दें:
- खुद को आधुनिक, प्रगतिवादी, उदार व नई सोच का मानते हैं। पर यथार्थ में सामाजिक सोच उसी गहरे गर्त में है जहां पाषाण काल में थी। पुरुषवादी सोच हमें छोड़ने को तैयार नहीं हैं। मगर आधुनिकता का ‘मास्क’ लगाए घूमना हमें खूब आता है।
- भले ही नज़ीर कुछ भी दें, कानून में भी लिंग भेद की कोई जगह नहीं है। पर जब अपने घर की बात आती है तो जायज-नाजायज सब भूल कर बेटे को बेटी पर तरजीह देने में कोई हिचक नहीं आती है। बेटे-बेटी का भेद सारे प्रयासों के बाद भी आधे से ज्यादा भारत में है। गांव ही नहीं शहर भी इस भेद-भाव से ग्रस्त हैं। नवरात्र तब सार्थक होंगे जब भेदभाव की यह खाई पटेगी ।
कन्याओं को सम्मान दें :

आज भी अपनी मर्जी का जीवनसाथी चुनने का अधिकार लड़कियों को देने को हम कतई तैयार नहीं हैं। यदि वह अपना यह अधिकार लेने की जुर्रत करती है तो उसके हिस्से में आती है ज़िल्लत या मौत। जाति, गौत्र, वर्ग, सम्प्रदाय या हैसियत के बहाने से लड़की को दबाने का कोई मौका हम हाथ से नहीं जाने देते हैं। तथाकथित सम्मान के कम होने मात्र की आशंका से ही से ‘पूजनीय कन्या’ को मौत के आगोश में सुला देते हैं। अगर सचमुच नवरात्र सार्थक करने हैं तो अपने घर-परिवार की कन्याओं को आजादी तथा बाहर की कन्याओं को सम्मान दें।
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बेटियों को बल दें :
एक नज़र युवा दुनिया की हालत पर डालें तो दिल दहलाने वाला परिदृश्य दिखता है। बढ़ते अनाचार और टूटती बिखरती मर्यादाओं की सबसे ज्यादा मार लड़की पर ही पड़ती है। उसके उत्थान व प्रगति का श्रेय संस्थाएं, व्यक्ति, सरकार और समाज लेते हैं। पर आज भी लड़की को कभी दैहिक तो कभी मानसिक संत्रास से गुजरने को बाध्य करते हैं। बचपन से जवान होने तक एक डर में ही जीने को विवश है कन्या। यदि कन्याएं सबल नहीं होंगी तो नवरात्र भी सफल नहीं हो सकते ।
सुरक्षा प्रदान करें :
- बेशक बेटियों ने नए से नए क्षितिज छुए हैं। पर कई मुकामों पर वह आज भी वहीं खड़ी है, जहां वह आज से पचहत्तर साल पहले खड़ी थी। पढ़ी-लिखी लड़कियों ने बहुत कुछ पाया है तो ऐसा बहुत कुछ गंवाया भी है। जो उनके लिये कहीं ज्यादा जरुरी था। अपने अधिकारों की कीमत लड़कियों को चुकानी पड़ी है ।
- सहज विश्वास भी नहीं होता कि हम उसी भारतीय समाज में रह रहे हैं, जिसमें लड़कियों की बेहद इज्जत करने की समृद्ध परंपरा रही है। जहां पर रिश्तों की ऐसी संस्कृति रही है जिसमें बेटी ही नहीं वरन् अपने आस पास की लड़कियों की भी पूजा की जाती रही है। पर, आज तो लड़कियां बाहर तो क्या अपने ही घर में भी सुरक्षित रह गई हैं? लड़कियों की सुरक्षा आज के समय की मांग है। उनकी सुरक्षा का संकल्प लेकर इस नवरात्रि को सार्थक करें।
कमाई पर हक हो :
हम यह तो चाहते हैं कि वह कमाएं पर शर्त यह कि उसका, हर निर्णय हम ही तय करें। कन्याओं को समान कार्य करने पर भी पुरुष के मुकाबले कम वेतन दिया जाता है। कार्यस्थलों पर उसके यौन शोषण की घटनाएं लगातार बढ़ती जा रही हैं। लगभग 60 प्रतिशत संस्थानों में उसे अपने ही सहकर्मियों की छींटाकशी का शिकार होना पड़ रहा है। बाहर ही क्यों, घर की चारदीवारी में भी लड़की शोषण की शिकार बनती है। अगर सचमुच आप कन्याओं के कद्रदान हैं तो उन्हें उनकी कमाई पर पूरा हक़ भी दें ।
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सकारात्मक सोच बनाएं :

बलात्कार, शोषण, दहेज, हत्या, असुरक्षा, बदनामी, छेड़खानी, अपमान का भय बेटियो के पंख कतरने को काफी है। गर्भ में ही उसकी भ्रूण हत्या कर देने जैसे कृत्य के चलते बालक- बालिका अनुपात बुरी तरह गड़बड़ा गया है। 1000 पुरुषों पर महज 841 बालिकाओं का आंकड़ा डराता है। पर व्यक्तिगत स्वार्थों व दकियानुसी समाज के चलते बदस्तूर बालिकाओं की भ्रूण हत्या जारी है। बिना ये सोचे कि यदि यह चलता रहा तो कहां जाएंगें। वे 160 लड़के जिन्हें आने वाले समय में दुल्हन या तो मिलेगी ही नहीं या फिर एक बार फिर से बहुपत्नी प्रथा वापस खड़ी दिखेगी। कहीं फिर से ‘‘जिस घर सुंदर बेटी देखी, ता घर जाय धरे हथियार’’ वाला युग वापस न लौट आए, डर इस बात का भी है।
नवरात्र को बनाएं गर्व पर्व
आज भी लड़की होना दर्द का सबब है। भले ही कुछ लोग लड़के- लड़की को बराबर मानते हों, पर कड़वा सच यही है कि आज भी दोनों में फर्क है। कहने की बात और है पर वास्तविकता कुछ और है। करीब 50 प्रतिशत मां- बाप आज एक लड़के के पैदा होने पर ‘बस’ कर देते हैं, पर लड़की के मामले में ये अनुपात न के बराबर है। यदि कुछ लोग ऐसा करते भी हैं उनमें से एक बहुत बड़ा भाग बाद में इस या उस वजह से ‘पछताता’ देखा गया है। बेटी को जन्म से ही अपना गर्व व गौरव समझें तभी सार्थक होगा नवरात्र का पर्व। कितना अच्छा हो कि हम नवरात्रों को केवल धार्मिक अनुष्ठान से आगे बढ़कर गर्व पर्व बनाने का सतत प्रयास करें।
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