Thursday, September 19, 2024
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नवधा भक्ति क्या है?

श्रीमद्भागवत में है भक्ति के नौ रूपों का विवेचन

भक्ति परमात्मा के प्रति मनुष्य की समर्पण भावना है। भक्ति के नौ रूपों का विवेचन श्रीमद्भागवत में पाया जाता है।  जिसे नवधा भक्ति कहते हैं। भगवान के गुणों का श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वंदन, दास्य, सख्य तथा आत्मनिवेदन भक्ति के यह नौ रूप हैं।

  • भक्ति परमात्मा के प्रति मनुष्य की समर्पण भावना है।
  • ईश्वर प्राप्ति का एक सहज साधन भक्ति है, भक्ति केवल प्रेममयी होती है।
  • वस्तुतः भगवान को प्रसन्नता के लिए किए जाने वाले प्रयत्नों की परम्परा भक्ति है।
  • अनन्य भक्ति प्रभु की मोचनशक्ति है।
  •  भक्ति से ज्ञान की शुद्धि होती है।

श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरण पादसेवनम् ।

अर्चन वंदनं वास्य सख्यमात्मनिवेदनम्॥

भक्ति के नौ रूप

  • भक्ति के नौ रूपों का विवेचन सर्वप्रथम श्रीमद्भागवत में पाया जाता है।
  • भगवान के गुणों का श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वंदन, दास्य, सख्य तथा आत्मनिवेदन भक्ति के यह नौ रूप हैं।

इनका संक्षिप्त विवेचन इस प्रकार है-

कीर्तन भक्ति

  • ईश्वर के नाम का कीर्तन करना, कीर्तन भक्ति के अंतर्गत आता है।
  • ब्राह्मणघाती, पितृघाती, गोघाती मातृघाती और गुरुघाती जैसे पापी चांडाल तथा म्लेच्छ भी कीर्तन से शुद्ध हो जाते हैं।
  • नारद पुराण के अनुसार इस घोर कलिकाल में श्रीहरि का नाम संकीर्तन ही एकमात्र कल्याण का साधन है।

श्रवण भक्ति

  • प्रभु की सत्ता के विषय में सुनना ही श्रवण भक्ति है।
  • श्रवण भक्ति का माहात्म्य बताते हुए स्कंद पुराण में कहा गया है कि
  • जहां विष्णु कथारूपी गंगा बहती है,
  • उस देश में निवास करने वालों की मुक्ति उनके ही हाथों में रहती है।
  • विष्णु पुराण की मान्यता है कि विष्णु के विषय में श्रवण करना ही भक्ति का सर्वोच्च सोपान है। सुनने की शक्ति मनुष्य की मानसिक प्रवृत्तियों को प्रभावित करती है।
  • इसलिए देवतादि श्रवण करने वाले पुरुषों के लिए स्वतः वरदायक हो जाते हैं।

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स्मरण भक्ति

  • श्रद्धापूर्वक भगवान के रूप का चिंतन स्मरण भक्ति है।
  • भगवान के सगुण या निर्गुण रूप का नित्य स्मरण भक्ति है।
  • श्रीमद्भागवत पुराण का कथन है-
  • प्रभु का चिंतन करने वाले का मन ईश्वर में लीन हो जाता है।

नारद पुराण कहता है-

  • जिस प्रकार अग्नि हर वस्तु को जला डालती है,
  • उसी प्रकार प्रभु दुष्ट चित्त वाले पुरुषों द्वारा स्मरण किए जाने पर भी उसके समस्त पापों को हर लेते हैं।
  • विष्णु पुराण की मान्यता है कि पापकर्म का एकमात्र प्रायश्चित है हरि नाम का स्मरण ।
  • पज्ञ पुराण में वर्णन मिलता है कि जो हृदय में प्रभु का स्मरण करता है,
  • उसके सब कर्म एक कल्प तक अक्षय हो जाते हैं।

वंदन भक्ति

  • ईश्वर को सर्वत्र जानकर श्रद्धा भाव से उन्हें नमन करना ही वंदन भक्ति है।
  • वंदना से मानव मस्तिष्क की सुप्त शक्तियां जाग्रत हो उठती हैं।
  • वंदन नमस्कारात्मक होता है।
  • नमन करने से अहंकार का नाश होता है।
  • श्रीमद्भागवत पुराण का कथन है कि पतित, स्खलित, छींकता हुआ या परवश हुआ मनुष्य भी अगर ‘हरये नमः’ कहकर प्रणाम करता है तो उसका उद्धार हो जाता है।
  • वंदन भक्ति का सहारा लेने से भक्त यमराज की छाया से दूर हो जाते हैं,
  • क्योंकि स्वयं यमराम का वचन है।

पादसेवन भक्ति

  • ईश्वर के चरण कमलों का पूजन ही पादसेवन भक्ति है।
  • भागवत पुराण में कहा गया है कि वज्र, अंकुश, पताका एवं कमल के चिन्हों से युक्त रक्तवर्ण, उन्नत नख मंडल की शोभा वाले भगवान के चरणों का चिंतन करना चाहिए।
  • विष्णु पुराण में भगवान वराह का स्तवन करते हुए उनके चरणों के चारों वेदों की स्थिति का निर्देश किया गया है।
  • पुराणों की मान्यता है कि प्रभु के चरणों में प्रक्षालन से निकली हुई गंगाजी के पवित्र जल को सिर पर धारण करके शिव ने शिवत्व प्राप्त किया था।

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अर्चन भक्ति

  • गंध, पुष्प, फल-फूल आदि से प्रभु का पूजन-अर्चन भक्ति है।
  • श्रीमद्भागवत पुराण में अर्चन भक्ति को सम्पूर्ण सिद्धियों का मूल बताया गया
  • अग्नि पुराण में कहा गया है कि प्रभु को प्रसन्न करने वाले आठ भाव
  • पुष्पों, अहिंसा, इंद्रिय निग्रह, दया, शांति, क्षमा, तप, ध्यान तथा सत्य से प्रभु की पूजा का उपदेश मिलता है।
  • विष्णु पुराण के अनुसार अर्चन करने से मनुष्य अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त करता है।

दास्य भक्ति

  • दास्य भक्ति का अर्थ है प्रभु की सेवा में सर्वस्व अर्पण कर देना।
  • भागवत पुराण में दास्य भक्ति के विषय में कहा गया है कि
  • स्वार्थ बुद्धि से की गई भगवान की सेवा सच्चा दास्य भाव नहीं, अपितु व्यापार के समान है।
  • प्रभु की सेवा ही दास्य भक्ति है।

आत्मनिवेदन भक्ति

  • हे प्रभु मैं आपका हूँ इस भाव का उठना हो आत्मनिवेदन भक्ति है।
  • शरणागति की भावना में भक्ति, कर्म एवं ज्ञान तीनों का समन्वय होता है।
  • नरसिंह पुराण की मान्यता है कि मैं वासुदेव की शरण में उनका दास हूं।
  • अगर ऐसी निश्चित बुद्धि उत्पन्न हो जाती है तो भक्त को विष्णुलोक की प्राप्ति स्वयं हो जाती है। मुमुक्षु साधक विश्व में मुझसे भिन्न किसी पदार्थ को न देखें-
  • भगवान की इसी उक्ति के पीछे शरणागति का भाव छिपा है।
  • प्रभु को आधार मानकर उनकी शरण में जाना आत्मनिवेदन भक्ति है।
  • मैं भगवान शंकर की शरण लेता हूं।
  • स्कंद पुराण का यह वचन आत्मनिवेदन भक्ति की भावना को पुष्ट करता है।
  • नवधा भक्ति में ‘आत्म निवेदन’ भक्ति की पराकाष्ठा है।
  • सबकुछ प्रभु के चरणों में अर्पण कर उनकी शरण में जाना एक महान भाव है।
  • परमात्मा प्राप्ति के अनुकूल कार्यों को करना तथा उनके प्रतिकूल कार्यों का प्रतिकार करना ही आत्मनिवेदन भक्ति का मंत्र है।
  • सभी प्रकार के कल्याणकारी साधनों में प्रधान तत्त्व ‘शरण’ ही है, चाहे वो सांख्य योगी हो अथवा कर्मयोगी,
  • सभी मार्गों में शरण की प्रधानता मानी गई है।
  • नारद पुराण में उल्लेख मिलता है कि
  • विप्रवर उत्तंक ने आत्मनिवेदन भक्ति का आश्रय लेकर योगियों के लिए दुर्लभ दिव्य ज्ञान को भगवान विष्णु से पाया था।
  • उत्तंक का यह भाव शरणागति की पराकाष्ठा है।

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सख्य भक्ति

  • नवधा भक्ति का एक और सोपान है- सख्य भक्ति।
  • ईश्वर को मित्रवत् मानकर श्रद्धा एवं प्रेम से उन्हें भजना सख्य भक्ति है।
  • श्रीमद्भागवत पुराण में श्रीकृष्ण के सखा गोपों के भाग्य की प्रशंसा करते हुए कहा गया है
  • कि व्रज के लोगों का भाग्य धन्य है जिनके मित्र ब्रह्म हैं।
  • अर्जुन, सुदामा एवं उद्धव भगवान को कितने प्रिय थे, यह जगतविदित है।
  • नवधा भक्ति में से किसी एक का अनुशीलन भक्त को आनंद की प्राप्ति करा देता है।
  • इस प्रकार भक्ति के नौ रूपों की महत्ता सिद्ध होती है।

 

 

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