प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव ने किया इक्षु रस से पारणा/ First Tirthankar Rishabhdev performed Parana with Ikshu Ras

वैशाख शुक्ल तृतीया यानी अक्षय तृतीया मंगलकारी तिथि है। इस दिन शुभ कार्यो का अक्षय फल मिलता है। यह तिथि स्वयंसिद्ध मुहूर्त मानी गई है। जैनियों के प्रथम तीर्थंकर आदिनाथजी/ऋषभदेव जी ने दान में मिले इक्षु रस, गन्ने के रस से इसी दिन वर्ष भर के उपवास का पारणा किया था। राजा श्रेयांस को इसी दिन अक्षय दान का फल मिला था।
भारत में वैसाख शुक्ल तृतीया की तिथि एक शुभ और महत्वपूर्ण तिथि मानी जाती है।
विभिन्न समुदायों और परंपराओं में इसका धार्मिक, पौराणिक, सामाजिक और प्राकृतिक महत्व है।
सनातन धर्म व जैन धर्म दोनों में ही अक्षय तृतीया तिथि को मंगलकारी माना गया है।
पौराणिक ग्रन्थों के अनुसार इस दिन जो भी शुभ कार्य किये जाते हैं, उनका अक्षय फल मिलता है।
यह तिथि स्वयंसिद्ध मुहूर्तो में मानी गई है।
इस दिन दिए जाने वाले दान का विशेष महत्व होता है।
जैन धर्म में अक्षय तृतीया
- जैन धर्म में इस दिन दान करने की परंपरा है।
- मुख्यरूप से भोजन या गन्ने के रस का दान इस दिन किया जाता है।
- प्रथम तीर्थंकर भगवान आदिनाथ जी (भगवान ऋषभदेवजी) ने इसी दिन एक वर्ष के उपवास के पश्चात पारणा किया था।
- उनको पारणा कराने वाले राजा श्रेयांश को अक्षय पुण्य प्राप्त हुआ था।
- जिस कारण इस दिन को अक्षय तृतीया के रूप में मनाया जाने लगा।
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अक्षय तृतीया का महत्व और इससे जुड़ी कथा
- जैन धर्म के अनुसार, इस युग के तीसरे आरे में अयोध्या के राजा नाभि के घर में जैन धर्म के संस्थापक भगवान ऋषभदेव का जन्म हुआ था।
- ऋषभदेव चौबीस तीर्थंकरों में से जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर हैं।
- उन्हें आदिनाथ के नाम से भी जाना जाता है।
- उस समय तक इस पृथ्वी पर मनुष्य जाति सिर्फ जानवरों की तरह घूमते और भक्षण करते थे।
- मानव जाति को किसी भी तरह के कर्म का ज्ञान नहीं था।
- खेती-बाड़ी, भोजन, शिल्पकला, औजार, व्यवस्था इत्यादि किसी भी चीज़ का ज्ञान नहीं था।
- तब भगवान ऋषभदेव ने सभी को कर्म करने का संदेश दिया।
- लोगों को असि, मसि और ससि का ज्ञान दिया।
- उन्होंने सभी को खेती करना, भोजन उगाना, व्यापार करना, भवन बनाना, पढ़ना-लिखना इत्यादि की शिक्षा दी।
- इसके बाद से ही समाज में नियम, सिद्धांत, व्यवस्था इत्यादि लागू हुई।
भगवान ऋषभदेव का वन गमन
- अपने पिता के बाद ऋषभदेव अयोध्या व भारतभूमि के राजा बने।
- एक दिन उनकी सभा में स्वर्ग के राजा इंद्र देव आये हुए थे और दोनों मिलकर नृत्यांगनाओं का नृत्य देख रहे थे।
- तभी एक नृत्यांगना की मृत्यु हो गयी।
- मृत्यु का यह कटु सत्य देखकर ऋषभदेव जी का मन बेचैन हो गया।
- उन्होंने उसी समय सांसारिक सुख-दुःख, मोह-माया का त्याग करने का निर्णय ले लिया।
- अपना राज्य सबसे बड़े पुत्र भरत को सौंप दिया तथा बाकि के 99 पुत्रों और उनके पुत्रों में भारत के अन्य राज्य बाँट दिए।
- वे सबकुछ छोड़कर वन में चले गए।
संन्यास व उपवास
- ऋषभदेव जी ने वन में वस्त्रों का भी त्याग कर दिया और संन्यास लेकर साधु बन गए।
- कई अन्य राजाओं व प्रजा के लोग भी उनके साथ संन्यस्त हो गए।
- उन्होंने संसार की असारता बताते हुए आत्मा पर विजय के नियम बताए।
- आत्मा को जीतने निकले ऋषभदेव जी द्वारा दिए गए उपदेश से जैन धर्म का प्रादुर्भाव हुआ
- साधनारत ऋषभदेवजी ने छह माह तक अन्न-जल का त्याग कर मौन धारण किया।
- उनके साथ आये कुछ लोग धीरे-धीरे भूख-प्यास से व्याकुल हो गए।
- इसके बाद उन लोगों के द्वारा जैन धर्म में विभिन्न संप्रदायों की शुरुआत की गयी।
- किंतु भगवान ऋषभदेव अपने उपवास पर अडिग रहे।
- छह माह के उपवास के बाद वे आहारचर्या के लिए निकले।
आहारचर्या
- आहारचर्या के लिए उन्हें गाँव-नगर भ्रमण करते हुए लोगों को शिक्षा देनी होती थी।
- बदले में लोग उन्हें कुछ दिया करते थे।
- चूँकि भगवान ऋषभदेव ने मनुष्यों को कुछ समय पहले ही सब शिक्षा दी थी।
- खेती-भोजन के महत्व को समझाया था, इसलिए उन लोगों को आहारदान देने की बात का ज्ञान नहीं था।
- ऋषभदेव जी आहारचर्या के लिए जाते। लेकिन लोग उन्हें अज्ञानतावश बहुमूल्य वस्तुएं दे दिया करते थे।
- उन्हें कहीं से भी आहार प्राप्त नहीं हुआ।
- इसी प्रकार एक वर्ष से भी ज्यादा का समय बीत गया।
- लेकिन ऋषभदेव जी ने अन्न-जल ग्रहण नहीं किया था।
राजा श्रेयांश को स्वप्न से मिली प्रेरणा
- राजा श्रेयांश भगवान ऋषभदेव के पौत्र थे और हस्तिनापुर राज्य के राजा थे।
- एक रात स्वप्न के दौरान उन्हें आहार का दान देने की बात कही गयी।
- उन्होंने देखा कि कुछ ही दिनों में भगवान ऋषभदेव उनके नगर में पहुंचेंगे।
- और तब उन्हें उनका स्वागत करके भेंट स्वरुप कुछ आहार देना है।
- इसके बाद उन्होंने अपने मंत्रियों से इसकी चर्चा की और इसकी तैयारियां की गईं।
इक्षुरस का दान
- भगवान ऋषभदेव जी को अन्न-जल का त्याग किये हुए 13 माह से अधिक का समय हो चुका था।
- इसमें छह माह उनके उपवास के थे तो 7 माह अन्न-जल की भेंट ना मिल पाने के कारण भूखे रहना पड़ा था।
- एक दिन ऋषभदेव गाँव-नगर भ्रमण करते हुए अपने पौत्र श्रेयांस के राज्य हस्तिनापुर पहुंचे।
- भगवान को अपने नगर में आते देख प्रजाजनों की भारी भीड़ उनके दर्शन करने उमड़ पड़ी।
- राजा श्रेयांश भी उत्साहपूर्वक अपने भवन से बाहर आये और भगवान ऋषभदेव जी का स्वागत किया।
- ऋषभदेव जी को प्रणाम किया और उनके चरण धोये। पीने के लिए इक्षुरस/शोरडी गन्ने का रस दिया।
- 13 मास बाद अपने उपवास के पारणे के रूप में ऋषभदेव जी ने गन्ने के रस को पिया था।
- यह भगवान आदिनाथ का दीक्षा प्राप्त करने के बाद का प्रथम आहार था।
नगर में देवों ने की वृष्टि
- राजा श्रेयांश के द्वारा भगवान आदिनाथ को प्रथम आहार देने पर देवता अत्यधिक प्रसन्न हुए।
- इंद्र व अन्य सभी देवता उसी समय स्वर्ग से हस्तिनापुर पहुँच गए और राजा श्रेयांश की नगरी को पंचाष्चर्य प्रदान किये।
इन पंचाष्चर्य में आते हैं:
- रत्न-आभूषणों की वर्षा
- पुष्प वर्षा होना
- उद्घोष होना या वाद्ययंत्रों का हर्षित वादन
- पूरे नगर में सुगन्धित वायु बहना
- राजा की जय -जय/ अहोदानम-अहोदानम का जयकारा होना।
भगवान ऋषभदेव का राजा श्रेयांश को शुभाषीश
- आहार ग्रहण करने के पश्चात भगवान ऋषभदेव ने राजा श्रेयांश को अक्षीण भोजन/अक्षय भोजन का आशीर्वाद दिया था।
- अक्षय का अर्थ होता है कभी ना समाप्त होने वाले।
- उसके बाद से राजा श्रेयांश के नगर में भोजन की कभी कमी नहीं रही और कोई भी भूखा नहीं रहा।
- भगवान को प्रथम आहार देने के कारण राजा श्रेयांश को अक्षय पुण्य भी प्राप्त हुआ था।
- आशीर्वाद देकर भगवान ऋषभदेव आत्म-विजय की अपनी यात्रा में आगे प्रस्थान किया।
परंपरा की शुरूआत
- दान के संयोग की जानकारी मिलते ही राजा भरत व अन्य राजा हस्तिनापुर पहुंच गए थे।
- भरत ने राजा श्रेयांश का सम्मान किया।
- इसी के साथ राजा भरत ने संपूर्ण भारत में भोजन के दान की शुरुआत की।
- राजा श्रेयांश को दानतीर्थ प्रवर्तक की संज्ञा दी गयी।
अक्षय तृतीया का अर्थ
- जिस दिन भगवान आदिनाथ ने राजा श्रेयांश के हाथों इक्षु रस को पिया था वह दिन वैशाख माह के शुक्ल पक्ष की तृतीया थी।
- इक्षु से अक्षय तथा वैसाख शुक्ल तृतीया से तृतीया को मिलाकर इस दिन को अक्षय तृतीया के नाम से जाना जाने लगा।
- अन्य मान्यता के अनुसार, इसी तिथि को राजा श्रेयांश को अक्षयभोजन व अक्षयपुण्य का फल प्राप्त हुआ था।
- इसलिए इसे अक्षय तृतीया नाम दिया गया।
वर्षीतप पर्व
- भगवान आदिनाथ एक वर्ष से ज्यादा समय तक भूखे रहे थे।
- उसके बाद उन्होंने राजा श्रेयांश के हाथों से भोजन ग्रहण किया था।
- उन्होंने एक वर्ष तक कठोर तपस्या की थी।
- इसलिए इसे जैन धर्म में वर्षीतप की संज्ञा दी गयी।
- आज भी जैन धर्म के लोग वर्षीतप व्रत की तपस्या करते हैं।
- यह व्रत कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि से शुरू होकर वैसाख माह के शुक्ल पक्ष की तृतीया तक चलता है।
- इसमें जैन धर्मावलम्बियों को हर माह की चतुर्दशी तिथि को उपवास रखना होता है।
- केवल गर्म पानी का सेवन करना होता है।
- फिर अक्षय तृतीया के दिन पारणा कर व्रत को समाप्त किया जाता है।
अक्षय तृतीया पर दान
- इस दिन का जैन धर्म में दान का बहुत महत्व है।
- कुछ लोग इस दिन खुलकर दान करते हैं।
- जैन मतावलंबियों द्वारा इस दिन जगह-जगह मुख्य रूप से गन्ने के रस का दान किया जाता हैं।
- साथ ही इस दिन को सभी कार्यों के लिए अत्यंत शुभ माना गया हैं।
- गृह प्रवेश, नयी चीज़ खरीदना, विवाह-लग्न करवाना, किसी काम की शुरुआत करना शुभ माना जाता है।
- हिंदू धर्म के लोगों के लिए भी यह दिन अत्यंत शुभ दिन माना गया है।

