Thursday, September 19, 2024
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गुरु को सारथी बना जिएँ निश्चिंत जीवन

गुरु को बनाएं जीवन-रथ के सारथी, जिएँ निश्चिंत जीवन

जब हम गुरु या ईश्वर को हर पल अपने करीब महसूस करते हैं तो कठिन से कठिन घड़ी भी आसानी से बीत जाती है। इस प्रकार हमें अपने जीवनरूपी रथ का सारथी गुरु को बनाकर निश्चिंत होकर जीवन जीना चाहिए।

चेतना का निरंतर विस्तार, गुरु के प्रति पूर्ण सर्म्पण यानी हर पल उन्हें अपने आस-पास महसूस करें।

यही जीवन की डोर गुरु या भगवान के हाथ सौंप देना है।

जब हम गुरु या ईश्वर को हर पल अपने करीब महसूस करते हैं।

तब कठिन से कठिन घड़ी भी आसानी से बीत जाती है।

इस प्रकार हमें अपने जीवन रूपी रथ का सारथी गुरु को बनाकर निश्चिंत होकर जीवन जीना चाहिए।

इस संसार में मनुष्यों की चार श्रेणियां होती हैं- मूढ़, अज्ञानी, मुमुक्षु और ज्ञानी।

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मूढ़ कौन

मूढ़ उसे कहा जाता है, जिसका पूरा ध्यान शरीर पर  होता है।

इसके कारण वह उम्र भर शरीर से जुड़ी सुख-सुविधाएं जुटाने में लगा रहता है।

वह जानवर की तरह संसार में जीता है और मर जाता है।

परमात्मा से मिली क्षमता के बावजूद मूढ़ व्यत्ति न तो अपने जन्म का वास्तविक उद्देश्य जानना चाहता है

और न ही अपनी बुद्धि का विकास करना चाहता है।

अपने शरीर और उससे जुड़े संबंधों तथा क्रियाओं से आसक्ति होने के कारण वह जीवन भर सुख-दुःख भोगता है।

इसी सुख-दुख के फेर में एक दिन उसका जीवन समाप्त हो जाता है।

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अज्ञानी कौन

अज्ञानी व्यत्ति उसे कहा गया है, जो खुद को बुद्धिमान और दूसरों को मूर्ख मानता है।

ज्ञान का अहंकार रखने वाले को भी अज्ञानी कहा गया है, क्योंकि यही अहंकार उसकी प्रगति में बाधक बन जाता है।

अहंकार के कारण वह किसी के सामने झुक नहीं पाता है।

वह प्रश्न भी करता है तो केवल इसलिए कि दूसरों को यह जता सके कि देखो मुझमें तुमसे अधिक ज्ञान है।

वह ज्ञान पाने का ढोंग करता है।

अज्ञानी की अपेक्षा मूढ़ को अच्छा माना गया है, क्योंकि मूढ़ व्यत्ति में अहंकार नहीं होता है।

मुुमुक्षु कौन

मुमुक्षु का अर्थ है कि जो मोक्ष या मुक्ति की इच्छा रखता है।

जो कर्मों के बंधन, क्रोध, राग, द्वेष, ईर्ष्या, लालच, अहंकार जैसे संकीर्ण विचारों से मुक्ति पाने की इच्छा रखता है।

वह इसी जन्म में कर्म-बंधन से मुक्त होकर, जीने की सच्ची कला जानकर, उन्मुक्त होकर जीवन जीना चाहता है।

मुमुक्षु पुनर्जन्म आदि पर भरोसा न करके इसी जीवन में मोक्ष प्राप्त करना चाहता है।

मुमुक्षु अहंकार छोड़कर अपने गुरु को समार्पित रहता है।

क्योंकि अहंकार के रहते भगवान भी हमारी सहायता नहीं कर सकते हैं।

तजें अहंकार को

गुरु की कृपा दृष्टि पाने में अहंकार बाधक है।

अहंकार हमारे पास उपलब्ध धन, दौलत, मान-सम्मान, ज्ञान, सुंदरता आदि में से किसी का भी हो सकता है।

अहंकार को स्वयं जानना कठिन है।

अहंकार को जानने के लिए एक तरीका यह भी है कि

हम अपने पारिजनों और मित्रों से पूछे कि हममें क्या कमी है।

हमारे स्वभाव या व्यवहार में अहंकार कहां दिखता है।

हमारी कमियां हमें दूसरे ही बता सकते हैं।

उनके अनुभवों के आधार पर स्व-निरीक्षण करें।

इस तरह अपने व्यवहार में बदलाव लाकर मुमुक्षु बनने की ओर बढ़ सकते हैं।

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बनें मुमुक्ष

अच्छा खुशहाल जीवन जीने के लिए अज्ञानी नहीं मुमुक्षु बनकर जिएं।

झुकना सीखें, हर जीव से प्रेम करें।

दूसरों के दृष्टिकोण को समझने और उसके अनुसार भी देखने की कोशिश करें।

व्यवहार में सकारात्मक बदलाव लाते ही जीवन में सुख-शांति आ जाएगी।

मुमुक्षु ईश्वर को सदा अंग-संग महसूस करते-करते अहंकाररहित हो जाता है।

करें गुरु को पूर्ण समर्पण

जब हम भगवान या गुरु को पूर्ण रूप से समर्पित होकर प्रेम और ज्ञान भरा जीवन जिएंगे

तो हमसे कुछ गलत होगा ही नहीं।

चेतना का निरंतर विस्तार, गुरु के प्रति पूर्ण सर्म्पण यानी हर पल उन्हें अपने आस-पास महसूस करें।

यही जीवन की डोर गुरु या भगवान के हाथ सौंप देना है।

जब हम गुरु या ईश्वर को हर पल अपने करीब महसूस करते हैं,

तब कठिन से कठिन घड़ी भी आसानी से बीत जाती है।

हमें अपने जीवन रूपी रथ का सारथी गुरु को बनाकर निश्चिंत होकर जीवन जीना चाहिए।

 

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