
बहुत दिनों बाद छतरी निकाली। वहीं मिल गई जहां पिछले वर्ष वर्षा के बाद रख दी गई थी। निकाली इसलिए कि बालकनी की तरफ़ खुलने वाले दरवाजों ने यह झलका दिया कि आसमान से अभी आग भले न टपक रही हो, पर अप्रैल के अंत में ही वह काफी गर्म हो उठा है। हां, छतरी की ज़रूरत सिर्फ़ वर्षा-ऋतु में ही नहीं होती, वह वैशाख से ही शुरू हो जाती है, और फिर वर्षा-ऋतु के अंत तक बनी रहती है। लगभग पांच महीनों तक।
छतरी लेकर बाहर निकला। मेरी छाया के साथ उसकी छाया भी हो ली। यानी साथ-साथ चलने लगी। ज़रा पीछे मुड़कर देखा तो पाया कि चलते वक़्त मेरी और उसकी छाया, जमीन पर आपस में लिपट-सी जाती है। पर, यह तो वास्तविक, दीख पड़ने वाली छाया या छायाओं की बात हुई।
काम की छाया तो वह छाया है, जो दीखती नहीं है, पर ठंडक पहुंचाती है, उसी तरह जैसे कि मातृ-छाया होती है, जो दूर हों तो दीखती नहीं है पर, सिर के ऊपर तनी-सी रहती है। फिर भी।
जो भी हो, यह छतरी-चिंतन करना मुझे अच्छा लगने लगा। छतरी के रूप-प्रकार पर भी ध्यान गया। छतरी, ठीक किसी छतनार पेड़ की शकल की ही तो होती है। ज़रूर ही आदमी को इसकी प्रेरणा, पेड़ से ही मिली होगी। इस पर भी ध्यान गया कि पेड़ भी तो गर्मियों से लेकर बरसात तक आदमी को, पशुओं-पक्षियों को छाया देता है।
उन्हें बहुत हद तक धूप और बारिश दोनों से बचाता है। गौर करने लगा मन ही मन कि छतरियों को सजाया कितनी तरह से गया है। शुरू में जो छतरी सिर्फ काली होकर दिखा करती थी, वह दुनिया भर में अब रंग-बिरंगे रूपों में मिलती है।
किसी में फूल-पत्तियां टंकी होती हैं, किसी में कुछ और। वह छोटे आकार की भी हो सकती है, बड़े मंझोले आकार की भी। जापानी-चीनी छतरी-संस्कृति ने इसके रूपों को अलंकृत-परिष्कृत दोनों किया है। तो यह जो छत्र है, छतरी है, छाता है, अंब्रेला है, वह सदियों से मनुष्य के साथ है : वह पत्तों से बनता है, वह बांस से बनता है।
वह कपड़े से तो बनता ही है—शोभा की वस्तु की तरह भी। बच्चों की प्यारी छतरियां भी अब बनती ही हैं, एक बड़ी संख्या में, और व्यवहार में लायी जाती हैं। हां उसको लेकर या उसके प्रसंग से तो न जाने कितनी और कविताएं लिखी गई हैं। विभिन्न भाषाओं में। कथा-उपन्यासों में तो वह अनेक पात्रों के साथ दैनिक चर्चा और चर्या के क्रम में चली ही आई है छतरी। और फ़िल्मों में बरसाती दृश्यों में तो उसकी धूम रही है।
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छतरी-नृत्य भी प्रचलित हुआ है—यानी छतरी के साथ नृत्य। याद करने लगा तो छतरी कई तरह से याद आने लगी है—साथ में तो थी ही। याद आई कि ‘पथेर पांचाली’के ख्याति प्राप्त लेखक विभूतिभूषण बं बंद्योपाध्याय प्रायः छतरी साथ रखते थे। वह तो बंगाल से बाहर भी रहे, तो भी उनकी छवि, ‘छतरी छवि’के साथ जुड़ी रही।
जब मैं कलकत्ता (अब कोलकता) में रहता था तो बारिश के दिनों में तो कलकत्ता को छतरीमय पाता था। गर्मियों में भी बहुतेरे लोग छाता रखते थे। कभी-कभी तो यह भी होता था कि दूर-दूर तक चाहे बारिश के आने की आशंका न हो, पर, कुछ लोग छतरी साथ ही रखते थे। और कई बार वह काम भी आ जाती थी।
बारिश के बाद, अगर वे भीग चुकी हों, तो भी उन्हें तानकर खड़ा कर दिया जाता था, एक ओर, कि कुछ सूख जाएं। वे जगह घेरने वाली बड़ी छतरियां हुआ करती थीं। हर घर में उनके टांगने/रखने की जगह भी सुनिश्चित हुआ करती थी।
जो लोग छतरियों का व्यवहार करते हैं, वे जानते हैं कि छतरी ‘छूट’जाने वाली चीज है। आप किसी दुकान, बैंक या आफ़िस में गए हैं, और किसी से बातों में लग गए हैं, या अपने काम में ‘खो’गए हैं, और आपने छतरी किसी कुर्सी या दीवार के किसी कोने से, टिका कर रख दी है, तो आशंका इसी की (रहती) है कि वह ‘छूट’जाए। न मिलने पर तो अंत में हम यही कहते हैं, कि ‘भाई, वह वाली छतरी तो कहीं खो गई।’
पर, वह दरअसल आपसे खोती नहीं है, छूट जाती है। इसीलिए अगर बाहर निकल आने पर, आप को पांच मिनट के भीतर याद आ जाए कि साथ गई हुई छतरी छूट गई है, तो जिस दुकान, आफिस या बैंक आदि से आप बाहर निकले हैं, वहां वापस पहुँचने पर वह ‘छूटी’हुई चीज आपको मिल जाती है।
जो भी हो गर्मी या बरसात में वह आपकी पक्की साथिन है। और अगर आप ‘छतरी’ की जगह ‘छाता’ का प्रयोग करने वाले हों, तो कह लीजिये कि वह आपका पक्का साथी है। ‘छाता’ स्थायी भी हुआ करता है, घुमंतू नहीं। वह आपको किसी फुटपाथी दुकान के ऊपर तना हुआ मिल सकता है, किसी सिक्यूरिटी गार्ड के सिर पर भी ‘स्थायी’तौर पर रखा हुआ दिख सकता है, या किसी अस्थायी, दो-एक दिनों वाल फेस्टिव बाज़ार में भी वह स्टॉलों के ऊपर गर्वीले ढंग से खड़ा हुआ नज़र आ सकता है।
जो भी हो, छतरी या छाते के रूप प्रकार कई हैं। उसे बनाने वाली कंपनियों के बीच अब डिजाइनों और रंगों की एक होड़-सी है। अब गर्मियों और बारिश में वह किसी भी शहर-कस्बे को कुछ रंग-विरंगा बना देने में सफल हो सकता है। छतरी ‘स्त्रियों-वाली’और ‘पुरुषों वाली’के बीच भी बंटी रही है, पर, अब यह ‘भेद’कभी-कभी मिट भी जाता है।
खैर, छतरी, छतरी है। भले ही वह राजाओं-महाराजाओं-सामंतों के ऊपर ‘छत्र’की तरह बिराजती रही हो और किसानों-मजूरों-कलर्कों आदि के सिर पर सामान्य ‘छतरी’की तरह। दोनों के रूप का मूल ‘प्रकार’एक-सा है, आकार और अलंकरण का फ़र्क हो सकता है। उसे कलाओं में कई तरह से बरता गया है: मक़बूल फ़िदा हुसैन की ‘छतरी जूता लालटेन’वाली सीरीज बड़ी लोकप्रिय हुई थी। बहुत सराही भी गई थी। और जब उन्होंने अपनी पहली ‘शॉर्ट’फ़िल्म बनाई थी, और उसे ‘गोल्डन ‘बियर’पुरस्कार भी मिला था, तो उसमें भी छतरी मौजूद थी।
छतरी: भरोसे, सौंदर्य और संबंधों की प्रतीक
काली घाट पट पेंटिंग्स में वह बंगाली बाबू के साथ जुड़ी हुई मिलती थी। रंगमंच में भी उसका विलक्षण उपयोग हुआ है। ख्यातिलब्ध रंगकर्मी रतन थियाम ने मणिपुरी में कालिदास के काव्य ‘ऋतु संहार’पर आधारित जिस ‘नाटक’को मंचित किया उसमें बहुतेरी छतरियां एक-साथ नज़र आईं, एक दृश्य में और उसकी विजुअल अपील तो देखने से ही ताल्लुक रखती थी।
हम छतरी को कई बार हाथों से नचाया जाना भी देखते रहे हैं, सहज ही, एक खेल की तरह। छतरी, वह सबकी प्रिय है। जल्दी से कोई उससे बिछुड़ना नहीं चाहता। वह आसानी से दी जाती है किसी प्रिय को ही, भले उसके हाथों कहीं छूट जाने का खतरा हो। वह मानों संबंधों की मापक भी है।
बहरहाल, वह एक भरोसा है। संबल है। वह ‘सजधज’ में एक सज्जा है। हां, इसको चाहे जितनी बार आप चाहें तो दुहरा लें कि वह ‘सुंदर’ है, सुखकर है। उसका बोझ कभी बोझ नहीं लगता। बल्कि वही कई बार किसी बुजुर्ग का बोझ धारण कर लेती है, छड़ी बनकर।
वह किसी अभावग्रस्त घर में जहां-तहां से फट जाने पर, फिर जोड़-गांठ ली जाती रही है! वह अकेले की ही नहीं होती, मन थोड़ा-सा बड़ा हो तो उसमें दो-तीन भी समा जाते हैं। वह आकाश की प्रतीक है। वह रहे, जिसके पास भी रहे, सुरक्षित रहे, समय पर काम आए।
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