मानव का मूल स्वभाव है आत्मिक सुख
संसार के प्रमुख दार्शनिकों का मत है कि जीव की स्वाभाविक इच्छा और अभिलाषा आत्मिक उन्नति की है। भौतिक सुविधाओं को लोग इकट्ठा करते हैं, इंद्रियों के विषय भोगते हैं। पर बारीक दृष्टि से देखने पर पता चलता है कि ये सब कार्य भी आत्मिक तृप्ति के लिए किए जाते हैं।
नकल असल नहीं/ imitation is not real
- यह आज दूसरी बात है कि धुँधली दृष्टि होने के कारण लोग नकल को ही असल समझ बैठे हैं।
- उन्हें दूसरों की भौतिक खुशी अधिक प्रभावित कर रही है।
- वे दूसरों से खुद की तुलना कर उसमें ही आत्मिक खुशी पाने का प्रयास कर रहे हैं।
- जबकि यह खुशी स्थाई नहीं होती है।
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खर्च में खुशी/ happiness in spending
- आपने बड़े परिश्रम से धन इकट्ठा किया है, किंतु विवाह में उसे बड़ी उदारता के साथ खर्च कर देते हैं।
- उस दिन एक पैसे के लिए प्राण दिए मरते थे, आज आप अशर्फियाँ क्यों लुटा रहे हैं?
- इसलिए कि आज आप धन संचित रखने की अपेक्षा उसे खर्च कर डालने में अधिक सुख का अनुभव करते हैं।
- डाकू जिस धन को जान हथेली पर रखकर लाया था, उसे मदिरा पीने में इस तरह क्यों उड़ा रहा है?
- इसलिए कि वह मदिरा पीने के आनंद को धन जोड़ने की अपेक्षा अधिक महत्त्व देता है। बीमारी में, धर्म कार्यों में या अन्य बातों में काफी पैसा खर्च हो जाता है, किंतु मनुष्य कुछ भी रंज नहीं करता।
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चोरी में दुःख/ sadness in theft
- यही पैसा यदि चोरी में चला गया होता तो उसे बड़ा दुःख होता।
- इन उदाहरणों में आप देखते हैं कि जिनका अमूल्य जीवन धन-संचय में खर्च हुआ जा रहा है,
- वे अपने उस जीवनरस को भी एक समय बड़ी लापरवाही के साथ उड़ा देते हैं।
- ऐसा इसलिए होता है कि उन खर्चीले कामों में आदमी अधिक आनंद का अनुभव करता है।
- तो आत्मा के आनंद को पहचानें और इसे पाने के लिए नीतियुक्त मार्ग अपनाएँ।
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